आज एक खबर पढ़ रहा था कि मिर्जापुर में एक बाप ने बेटे की चाह में अपनी आठ वर्षीय बेटी की बलि दे दी। मिर्जापुर के समीप बबुराकलां गांव में एक अंधविश्वासी पिता राजमणि ने बेटा पाने के लिए अपनी इकलौती बेटी रिंकी जो आठ वर्ष की थी, गर्दन धड़ से अलग कर दी। इस दुष्ट बाप को एक ओझा ने बताया कि बेटी की बलि देने पर उसे बेटा प्राप्त हो सकेगा। राजमणि, इस बाप का नाम तो नागमणि भी नहीं होना चाहिए, ने अपने घर के आंगन में बेटी को मार डाला। रिंकी की मां शीला ने जब शोर मचाया तो गांव वाले आए और बाप व ओझा को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया।
क्या हम हिंदुस्तानी कभी नहीं सुधरेंगे। सरकार और समाज अपनी ओर से इस बात का लगातार प्रयास कर रहे हैं कि बेटी भी बेटा ही है, फिर हम सुधरना क्यों नहीं चाहते। मैं तो कहता हूं कि बेटे ज्यादातर नालायक होते हैं, बेटी ही अपने मां व बाप और परिजनों का बेहतर ख्याल रखती है हमेशा। लेकिन शायद ज्यादातर लोगों ने यह सोच रखा है कि तुम चाहे जो उखाड़ लो, हम नहीं सुधरेंगे। क्या इस राजमणि ने यह नहीं सोचा कि वह बगैर मां के पैदा हो गया था। क्या उसकी मां एक नारी नहीं है, क्या अकेले बाप ने उसे बगैर स्त्री के पैदा कर डाला। मैं तो कहता हूं कि जो लोग केवल बेटे चाहते हो, बेटियां नहीं, उन्हें सजा दी जानी चाहिए। इस दुष्ट बाप और बेटे ही पैदा करने की राय देने वालों को सरेआम फांसी पर लटकाना चाहिए। आपका क्या कहना है, जल्दी दीजिए अपनी टिप्पणी।
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4 comments:
is desh ka kuch nahi ho sakta hain..jahan aaj bhi andvishvas ke sath avisvas ki jad zami hui hian..
Ashish
अपना देश एक साथ कई शताब्दियों में जीता है। मिर्जापुर के ये राजमणि अब भी मध्ययुग में जी रहे हैं!
बेटे की चाह में ऐसा जघन्य अमानवीय काम करने ऐसे नराधम की निंदा के लिए शब्द नहीं हैं। इसके लिए तो फांसी की सजा भी कम है।
वैसे बात लड़का-लड़की की है तो एक बात क्लियर कर दूँ कि बेटे की चाह सभी को होती है। मैंने अच्छे अच्छे लोग देख लिए जो बड़ी बड़ी बातें करते हैं लेकिन बहू के बेटा न होने से परेशान रहते हैं। दरअसल एक तो बेटे का होना भारतीय संस्कृति में धार्मिक महत्व रखता है पित्रों को तर्पण का अधिकार बेटे को ही होता है। लेकिन ऐसा कहते हुए वे भूल जाते हैं कि कन्यादान को भी शास्त्रों में महान पुण्य बताया गया है।
दूसरा लोग सोचते हैं कि बेटा बुढ़ापे में उनका सहारा बनेगा। अब इस बात के विरोध में कई लोग कहते हैं कि बेटे बुढ़ापे में नहीं पूछते लेकिन अपवाद तो हर जगह होते हैं, आम तौर पर यह तो सच है कि घर में बुजर्गों की देखभाल के लिए कोई तो होना चाहिए। बेटी तो ससुराल जा चुकी होगी, क्या ससुराल में उसके घर जाकर रहें।
रही बात नालायक की तो वो तो कोई भी निकल सकता है। कटु सत्य है लेकिन बेटी नालायक हुई तो ज्यादा बदनामी होगी।
तो मेरी राय क्या है?
बेटा और बेटी दोनों होने चाहिए, दोनों समान महत्व के हैं। उनमें आपस में लेकिन कोई फर्क नहीं किया जाना चाहिए, दोनों को समान अवसर मिलने चाहिए।
अच्छा लेख लिखा है। मैं तो एक बात जानती हूँ कि यदि संतान पैदा की है तो अच्छे माता पिता बनो। कोई भी बच्चा अपनी इच्छा से संसार में नहीं आता। रही बात श्रीश जी के यह कहने कि बेटा बेटी दोनों होने चाहिये तो भाई बाज़ार से सब्जी तो ला नहीं रहे कि आलू और भिंडी दोनों लाओगे। जो भी संतान हुई उसको अच्छे से पालो बड़ा करो, उससे स्नेह करो।
घुघूती बासूती
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