April 20, 2007

बलात्‍कार और हत्‍या करने के लिए स्‍टूडियों में आएं

कर भला तो हो भला, यह कहावत मुझे नहीं लगता कि किसी ने सुनी नहीं होगी। हां, यदि किसी ने न सुनी हो तो अब सुन ले या पढ़ ले। यह कहावत उन लोगों पर अब लागू नहीं होती जो दूसरे का भला करना चाहते हैं। फिर चाहे भलाई इंसानियत के तौर पर की जा रही हो या फिर स्‍वार्थ के वशीभूत होकर। लेकिन यह कहावत भारतीय मीडिया खासतौर पर इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम पर तो पूरी तरह लागू होती है। देश का इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम इतनी ज्‍यादा भलाई के काम कर रहा है कि पिछले दिनों उसके एक घराने पर मुंबई में हमला हो गया। हालांकि, इस हमले को प्रैस पर हमला, लोकतंत्र पर हमला, आजादी पर हमला और पता नहीं कौन कौन सा हमला बताया गया। हमला बोले भी क्‍यों नहीं, आखिर टीवी चैनल सभी का भला करने में लगा है। अपराध को इस तरह परोसा जा रहा है कि जैसे हमारा अगला लक्ष्‍य कृषि प्रधान देश के बजाय अपराध प्रधान देश हो। जब देश अपराध प्रधान देश बन जाएगा तो इनका भी भला होगा क्‍योंकि बढ़ती टीआरपी इनका भी भला करेगी। कर भला हो भला...। अपराध प्रधान देश्‍ा बनाने से पहले ये चैनल रोज रात में यह बताते हैं कि आज कौन कौन से अपराध हुए और कैसे हुए। इन अपराधों में ऐसी कौनसी खामियां रह गई कि अपराधी पकड़े गए। अरे भई वैसे आप जो बताते हैं उससे अगले अपराधी को अपने दोस्‍त अपराधी से यह तो सीखने को मिल ही जाता है कि अपराध करते समय उन गलतियों को न दोहराया जाए। लेकिन अब अपने कार्यक्रमों में यह भी बताना चाहिए कि एक अपराध कैसे करें और किन किन गलतियों से बचे ताकि पुलिस के हाथ नहीं केवल मीडिया के हाथ अपराधी और स्‍टोरी लग सके। पुलिस बेचारी ठन ठन पाल मदन गोपाल की तरह टीवी ही देखती रहे और अपराधी एंकर के साथ खड़ा होकर सीना चौड़ा कर अपने कारनामे के बारे में बताएं और एंकर पूछता जाए...वहां माहौल कैसा था। कितनी पब्लिक थी..जब आपने बलात्‍कार व हत्‍या की तो लोगों की क्‍या प्रतिक्रिया थी। बलात्‍कार करने से पहले आपने अपने को किस तरह तैयार किया..बलात्‍कार के बाद जब हत्‍या की तो किस तरह आपने अपने दिल की धड़कनों पर काबू पाया...अगला अपराध कब आदि आदि। इस पर देश भर से हजारों मूर्ख एसएमएस के जरिये यह भी बता रहे हैं कि क्‍या यह नए ढंग का अपराध है या नहीं। एंकर बोल रहा है कि हमारे पास पांच लाख से ज्‍यादा एसएमएस आए हैं और 60 फीसदी का कहना है कि यह नए ढंग का यूनिक अपराध है। क्‍या कल आप बाल बलात्‍कार देखना चाहेंगे....हमें एसएमएस करें...हां के लिए ए....नहीं के लिए....बी...अपना मैसेज टाइप करें और भेजें 0000 पर। टीवी चैनलों पर वैसे जो लोग ऐसे कार्यक्रम पेश करते हैं वे भी किसी अपराधी की शक्‍ल से कम नहीं लगते। इस तरह के हाव भाव और चेहरा मानों सीधे यरवडा जेल से चले आ रहे हैं कार्यक्रम पेश करने। कुछ लोग भूत बंगला जैसे कार्यक्रम से लेकर भूतों से मोबाइल तक पर बात कराते हैं। जै हो....जै हो...देश फिर से सांप और मदारियों के युग में लौट रहा है। अंधविश्‍वास की ओर हम आगे बढ़ रहे हैं...हमें राजनीतिक और आर्थिक महासत्‍ता बनकर करना क्‍या है। संयुक्‍त राष्‍ट्र सभा में हमें चीन, फ्रांस, रुस, ब्रिटेन, अमरीका की तरह वीटो पावर जैसी ताकत लेकर करना क्‍या है। क्‍यों हम एशिया की सबसे बड़ी ताकत बने। हमें तो अपराध प्रधान देश बनना है, हमें चाहिए कूल्‍हें हिलाने और कमरिया लचके से लेकर भूत, बार डांसरों के जलवे, कुकर्मों की कहानी जैसे समाचार। मजा आता है यार...जब किसी बार डांसर के जलवे देखते हैं तो लार टपकती है, यह कैसे और कब मिलेगी। अरे टीवी वालों इसका फोन नंबर और रेट दो बता दो। पैसे अरेंज करने में लग जाएं ताकि। मॉडल देह व्‍यवसाय में शामिल...यारों नंबर और रेट और डेट क्‍यों नहीं बता देते कि यह कब तक मिल सकेगी। लानत है ऐसे समाचारों पर।

मुझे एक पुराना विज्ञापन याद है जिसमें कहा गया था कि चाहिए एक संपादक, वेतन दो सूखी रोटियां और ठंडा पानी। या फिर जो कहा गया था कि सफल संपादक वह है जो हर पखवाड़े शहर के चौराहे पर पिटे। भारतीय इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम में सब दौड़ रहे हैं कि हे भगवान मेरी टीआरपी कैसे भी बढ़ जाए। भले ही इसके लिए कभी स्‍टूडियो में लाकर किसी की हत्‍या कर उसके विजुअल भी दिखाना पड़े तो हम दिखाएंगे। चौबीस घंटे....हॉय चौबीस घंटे....ले लो न्‍यूज...जबरदस्‍ती देख लो...लेकिन टीआरपी बढ़ा दो। टीवी चैनलों पर एक विज्ञापन चलाते रहना चाहिए कि यदि आप बलात्‍कार करने वाले हैं, या हत्‍या अथवा नंगा नाच तो प्‍लीज हमारे स्‍टूडियो में आकर करें आपको पुलिस नहीं पकड़ेगी और हम इसे समूचे राष्‍ट्र के सामने पेश करेंगे ताकि दूसरे लोग सब लाइव देख सके एवं जो हमारी टीआरपी बढ़ेगी उससे हमारा कल्‍याण होगा। आइए...आइए...बलात्‍कार व हत्‍या के लिए यहां पधारे...दूसरे चैनल पर नहीं। सिर्फ इसी चैनल पर। एनडीटीवी ने डॉयल 100 जैसा कार्यक्रम बंद कर एक मिसाल पेश की है लेकिन दूसरे चैनल आपराधिक न्‍यूज को इतना बढ़ा चढ़ाकर और नाटय रुपांतरण कर पेश करते हैं कि लगता है कि सब कुछ मीडिया ही करवा रहा है। मुझे लगता है यह बकवास बंद होनी चाहिए और इस पर बहस होनी चाहिए कि ऐसे कार्यक्रम चलते रहने चाहिए या नहीं। कही दीर्घकाल में समाज पर विपरीत असर तो नहीं डालेंगे। यदि असर डालते हैं तो इसका नुकसान मीडिया से वसूल करना चाहिए। आज भारत को दुनिया में आर्थिक और राजनीतिक महासत्‍ता के रुप में स्‍थापित करना है तो हमें न्‍यूज और कार्यक्रम भी वैसे ही लाने होंगे जिनसे समाज के हर तबके का भला हो। वैसे अपराध के अलावा सेलिब्रिटी को लेकर भी काफी कुछ किया जा सकता है जिससे टीआरपी और बढ़ेगी। मसलन यह नहीं बताएं कि सेलिब्रिटी ने क्‍या खाया, क्‍या पीया, बुखार आया या उतरा। बल्कि यह भी बता सकते हैं जब ज्‍यादा न्‍यूज न हो तब सर/मैडम यही बात दें कि आज आपने कौनसे कलर की चड्डी पहनी है और फिर दिन भर यही लाइव चलेगा कि फलां हस्‍ती ने आज इस रंग की चड्डी पहनी है और इसके कारण्‍ा क्‍या हैं। एक ज्‍योतिष महाराज आकर बोलेंगे इस कलर की चड्डी से इन्‍हें ये ये लाभ हैं। इनका भविष्‍य यह है। टीआरपी प्रणाली को पूरी तरह बंद कर दिया जाना चाहिए, बलिक बेहतर और क्‍वॉलिटी की खबरों के आधार पर इनकी रेटिंग होनी चाहिए। ये कहते हैं कि जनता यही देखना चाहती है जो हम दिखा रहे हैं, जनता तो नंग धड़ग एंकर देखना चाहती है, कर देना सबको नंगा। बैठा देना कुर्सी के बजाय टेबल पर, सब दिखेगा और टीआरपी बढ़ेगी। प्रेस की आजादी के नाम पर जो बेकार का हल्‍ला मचाया गया वह प्रेस की आजादी पर हमला नहीं था। ढोंग कर रहे हैं, ऐसे लोग जो इसे हमला बता रहे हैं। कभी कभी तो लगता है ये लोग न्‍यूज पढ़ रहे हैं या चीख चीख कर हल्‍ला मचा रहे हैं। हथौड़ा मार रहे हैं दर्शकों के सिर पर। धीरे और शालीन तरीके से पढ़ो न खबरें। ये लोग जो हथौंडा मार ब्रांड खबरें सुना रहे हैं वह आम जनता पर हमला है और जनता से ऊपर कोई स्‍तंभ नहीं, भले वह चौथा स्‍तंभ पत्रकारिता ही क्‍यों नहीं हो।

April 18, 2007

गुगल का यह है मस्‍त दफ्तर--फोटो
























कैलिफोर्निया में माउंटेनव्‍यू स्थि‍त दुनिया के मुख्‍य सर्च इंजन गुगल का दफ्तर। कभी भी कार्य और कभी भी सोना...दफ्तर ऐसा जैसे व्‍यक्तिगत जगह। कहीं भी सोना और आराम ताकि कार्य के लिए वापस तरोताजा। खेलने के लिए खूब जगह और बेहतर माहौल। गपशप के साथ खेलकूद का आनंद। ऑफिस में अपने पालतू जानवरों के साथ प्‍यार और मस्‍ती। कुछ दिन पहले ही खबर आई थी कि गुगल का एक कर्मचारी तो अपने पालतू सांप को ही दफ्तर ले आया जिसे बड़ी मेहनत के बाद ही ढूंढा जा सका। रसोई का भी मजा लीजिए यहां। जब जी चाहा जायकेदार खाना बनाया और खाया। कुछ कर्मचारियों ने ऑफिस को सजा लिया....अब यह तो ऐसा लगता है कि यह टॉय शॉप है या ऑफिस। लीजिए यह पेश है फन व गेम्‍स...ऑफिस है या मौज मजे की जगह। बोर हो गए तो आनंद लीजिए म्‍युजिक का। और यह है आइडिया बोर्ड...आओं और लिख डालो जो आइडिया दिमाग में आता हो। आइडिया के लिए चाहिए मुफ्त का भोजन..खाना फ्री में मिल जाए तो आइडिया भी खूब आते हैं। गुगल में है, स‍ब जगह फ्री फूड...क्‍या यह सुपर मार्केट जैसा है। हां, तो मजे से खाने के लिए पेश हैं चाकलेट ही चाकलेट....। आखिर में लांड्री...। अब आप ही बताएं जब दफ्तर ऐसा हो तो घर कौन जाएगा........दफ्तर में ही घर नहीं बसा लेगा। सभी फोटो:उमेश आर्य के सौजन्‍य से।

April 16, 2007

पापड़ ने बनाया पूरे गांव को मालामाल


सृजन शिल्‍पी जी ने बीते शुक्रवार को लिखा था कि पत्रकारों, आओं अब गांवों की ओर लौटें। अब मैं आपको बताता हूं कि गुजरात के एक सफल गांव की कहानी जिसने पापड़ के बल पर पूरी गरीबी ही दूरी नही की, बल्कि आज वहां हर घर में से कम से कम एक सदस्‍य एनआरआई है। समूचे भारत में है कोई ऐसा शहर या महानगर जिसने इस तरह का कारनामा कर दिखाया हो। इस गांव पर मेरी यह रिपोर्ट सहारा समय साप्‍ताहिक में छपी चुकी है जिसे आज ब्‍लॉग पर डाला जा रहा है। पापड़ बेलना....कड़ी मेहनत के लिए जग प्रसिद्ध इस कहावत ने किसी की तकदीर बदली हो या नहीं लेकिन गुजरात के एक छोटे से गांव उत्‍तरसंडा की तकदीर जरुरी बदल दी। गुजरात के नडियाद शहर से छह किलोमीटर दूर उत्‍तरसंडा गांव आज समूची दुनिया में पापड़ के लिए विख्‍यात हो गया है वहीं इस गांव में गरीबी का नामोनिशान नहीं है। इस गांव में अब हर घर में कम से कम एक सदस्‍य अनिवासी भारतीय भी बन गया है। तकरीबन 17 हजार की आबादी वाले इस गांव में पापड़ के छोटे बड़े लगभग 22 उत्‍पादक हैं। यहां के पापड़ देश में ही नहीं विदेश में भी खूब बिक रहे हें।

गुजरात के खेडा जिले के गांव उत्‍तरसंडा में 1986 में पापड़ बनाने की शुरूआत हुई। उत्‍तरसंडा के पड़ौसी गांव के निवासी दीपक पटेल ने उत्‍तम पापड़ ब्रांड के तहत पापड़ बनाने का यहां पहला कारखाना खोला। इस समय यह कारखाना करमसद गांव के रहने वाले जीतू त्रिवेदी संभाल रहे हैं। दीपक पटेल के पुत्र अमरीका में रह रहे हैं और दीपक पटेल भी वहीं चले गए हैं। उत्‍तरसंडा में पापड़ बनाने की ऑटोमैटिक मशीनें भी आ गई हैं जिनमें पापड़ सूखकर बाहर आता है। जीतू त्रिवेदी का कहना है कि धूप में सूखने वाले पापड़ में मिर्च मसालों की सुगंध हमेशा बनी रहती है। साथ ही पापड़ ताजा हो तभी स्‍वादिष्‍ट लगता है। स्‍वाद की गहराई बताते हुए जीतू त्रिवेदी कहते हैं कि पापड़ का स्‍वादा 25 दिन बाद बदल जाता है। उत्‍तरसंडा के 22 पापड़ उत्‍पादकों में से चार मुख्‍य हैं जिनमें उत्‍तम पापड़, श्रीजी पापड़, यश पापड़ और हर्ष पापड़ हैं। उत्‍तम पापड़ को छोड़कर सभी पापड़ उत्‍पादकों के पास पापड़ बेलने, सूखाने के बाद तीन मिनट में पैकिंग के लिए पापड़ के तैयार हो जाने वाली मशीनें आ गई हैं। इस गांव में पापड़ के लिए आटा गूंथने, पापड़ बेलने और सूखाने का काम मशीनों से ही होता है।

श्रीजी पापड़ के मालिक कनुभाई पटेल कहते हैं कि रोजाना 500 किलो पापड़ बनाने की दो मशीनें और एक हजार किलो पापड़ बनाने वाली एक मशीन लगातार काम करती रहे तो भी हम मांग को पूरा नहीं कर पाते। कनुभाई के कारखाने में तकरीबन सौ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। वे कहते हैं कि हमारा समूचा कारोबार नगद में होता है, कोई उधार नहीं।

हर रोज एक हजार किलो पापड़ बनाने वाले यश पापड़ के मालिक देवेन्‍द्र पटेल बताते हैं कि हमने 1997 में रोजाना सौ किलो पापड़ बनाने से शुरूआत की थी और आज हमारे पापड़ लंदन, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रिया, चीन, अमरीका और खाड़ी के देशों में खूब बिक रहे हैं। यश पापड़ सिंगल मिर्च, डबल मिर्च, लहसुन, पंजाबी, जीरामिर्च, पूरी पापड़, डिस्‍को पापड़, ओनली गार्लिक, लाल मिर्च पापड़ सहित बारह तरह के पापड़ और मठियां व चोराफली बनाते हैं।

उत्‍तरसंडा के पापड़ उत्‍पादकों का कहना है कि इस गांव की जलवायु पापड़ उद्योग के अनुकूल है जो पापड़ को सफेद, कोमल, पतला और स्‍वादिस्‍ष्‍ट बनाती है। उत्‍तरसंडा में पापड़ उत्‍पादकों को उड़द एंव मोठ की दाल और मसालों की आपूर्ति करने वाले हितेश दलाल कहते हैं कि उत्‍तरसंडा में रोजाना चार हजार किलो से ज्‍यादा पापड़ बनते और बिकते हैं।

साइड बिजनैस के रुप में शुरूआत करने वाले हर्ष पापड़ के मालिक वैशाली पटेल और प्रीतेश पटेल के लिए अब यही मुख्‍य कारोबार बन गया है। पापड़ उत्‍पादकों का संगठन न होने से पापड़ के भावों को लेकर सभी उत्‍पादकों में एक समानता न होने और बैंकों के रुखे व्‍यवहार से प्रीतेश पटेल काफी नाराज हैं। वे कहते हैं कि हमारा अच्‍छा कारोबार होने के बावजूद बैंक कर्ज देने से आनाकानी करते हैं। सरकारी बैंक कहते हैं कि कर्ज चाहिए तो फिक्‍स डिपॉजिट देनी होगी। अगर हमारे पास फिक्‍स डिपॉजिट के लिए पैसा हो तो हम कर्ज क्‍यों लेना चाहेंगे। वाकई पापड़ जैसे एक छोटे से उत्‍पाद ने इस गांव को जिस तरह आर्थिक रुप से सबल बना दिया वह देश के हजारों गांवों के लिए अनुकरणीय है।

April 14, 2007

रेडियो 24x7 न्‍यूज लाइव

सृजन शिल्‍पी जी ने कल लिखा था कि पत्रकारों, आओं अब गांवों की ओर लौटें। बेहतरीन रिपोर्ट थी यह, जिसमें रेडियो का भी जिक्र था। सृजन शिल्‍पी जी ने जो बात लिखी वह गौर करने लायक थी ‘बिजली और केबल कनेक्शन के अभाव में टेलीविज़न भी ग्रामीण क्षेत्रों तक नहीं पहुँच पाता। ऐसे में रेडियो ही एक ऐसा सशक्त माध्यम बचता है जो सुगमता से सुदूर गाँवों-देहातों में रहने वाले जन-जन तक बिना किसी बाधा के पहुँचता है। रेडियो आम जनता का माध्यम है और इसकी पहुँच हर जगह है, इसलिए ग्रामीण पत्रकारिता के ध्वजवाहक की भूमिका रेडियो को ही निभानी पड़ेगी। रेडियो के माध्यम से ग्रामीण पत्रकारिता को नई बुलंदियों तक पहुँचाया जा सकता है और पत्रकारिता के क्षेत्र में नए-नए आयाम खोले जा सकते हैं। इसके लिए रेडियो को अपना मिशन महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज्य के स्वप्न को साकार करने को बनाना पड़ेगा और उसको ध्यान में रखते हुए अपने कार्यक्रमों के स्वरूप और सामग्री में अनुकूल परिवर्तन करने होंगे। निश्चित रूप से इस अभियान में रेडियो की भूमिका केवल एक उत्प्रेरक की ही होगी।‘ शिल्‍पी जी की इन लाइनों पर कल काफी गौर किया। असल में देखा जाए तो गांवों में ही नहीं, महानगरों, शहरों और कस्‍बों में भी रेडियो बड़ी भूमिका निभा सकता है। आकाशवाणी और बीबीसी आज भी खबरों के लिए गांवों और कस्‍बों में रह रहे लाखों लोगों के लिए समाचार, विचार और मनोरंजन का सशक्‍त माध्‍यम बना हुआ है। देहातों से निकलने वाले छोटे अखबारों के लिए आज भी रेडियो प्राण है।

आकाशवाणी से आने वाले धीमी गति के समाचार इन अखबारों में सुने नहीं लिखे जाते थे ताकि ये अखबार अपनी समाचार जरुरत को पूरा कर सके। शाम को आने वाले खेल समाचार और प्रादेशिक समाचार के बुलेटिन भी यहां ध्‍यान दो-चार पत्रकार बैठकर सुनते थे। वर्ष 1988 में मुझे हरियाणा के कस्‍बे, लेकिन अब शहर करनाल में एक अखबार विश्‍व मानव में काम करने का मौका मिला, जहां दिन भर रेडियो की खबरों को सुना और लिखा जाता था। समाचार एजेंसियों से ज्‍यादा वहां रेडियों को महत्‍व दिया जाता था। हमारे यहां भाषा की सेवा थी लेकिन महीने में यह कई बार चलती ही नहीं थी, ऐसे में रेडियो हमें बचा ले जाता था, अन्‍यथा हो सकता था कि हमें बगैर समाचार के अखबार छापना पड़ता। आज भी गांवों और सीमांत क्षेत्रों में रेडियो का महत्‍व कम नहीं हुआ है। लोग खूब सुनते हैं समाचार, विश्‍लेषण और खास रपटें। यह खबर बीबीसी और आकाशवाणी पर सुनी है, यानी कन्‍फर्म हो गया। ऐसा कहते हैं गांवों में आज भी। हालांकि, यह भी सच है कि रेडियो पर आनी वाली खबरों, खबर कार्यक्रमों में बेहद बदलाव की जरुरत है। नई पीढ़ी की जरुरत के कार्यक्रम शामिल करने होंगे। जहां तक मेरा ज्ञान है सरकार ने एफएम रेडियो को न्‍यूज में आने की अनुमति अभी नहीं दी है। यदि सरकार यह अनुमति दे दें तो गांव भी बेहतर प्रगति कर सकते हैं लेकिन फिर रेडियो सेवा चलाने वालों को यह ध्‍यान में रखना होगा कि वे ग्रामीण पत्रकारिता का विशेष ख्‍याल रखें।

रेडियो पर 24x7 समाचार सेवा दूसरे किसी भी माध्‍यम से बेहतर चल सकती है। इस पर भी टीवी माध्‍यम की तरह समाचार की लाइव सेवा चलाई जा सकती है। अंतरराष्‍ट्रीय, राष्‍ट्रीय, राज्‍यस्‍तरीय समाचारों के अलावा देश के विभिन्‍न जिलों के मुख्‍य समाचार सुनाए जा सकते हैं। खेल, कारोबार, संस्‍कृति, मनोरंजन, इंटरव्‍यू, अपराध, महिला, बच्‍चों से जुड़े समाचार यानी वह सब कुछ जो एक अखबार या टीवी माध्‍यम में बताया जा सकता है। मनोरंजन के अलावा लाइफ स्‍टाइल, कैरियर, शॉपिंग, सिनेमा, शिक्षा आदि सभी के बारे में प्रोग्राम सुनाए जा सकते हैं। यहां मैं जिक्र करुंगा मुंबई विश्‍वविद्यालय का जिसने 107.8 एफएम पर चार घंटे कैम्‍पस समाचार, सेमिनार और विविध विषयों पर चर्चा करने की योजना बनाई है। मेरा ऐसा मानना है कि कम्‍युनिटी रेडियो से हटकर हरेक भाषाओं और हिंदी में राष्‍ट्रीय स्‍तर पर समाचारों के लिए कार्य किया जा सकता है। प्रिंट माध्‍यम में कई बार छोटे-छोटे गांवों में हर रोज अखबार ही नहीं पहुंच पाते या जो पहुंचते हैं वे वहां पहुंचते-पहुंचते बासी हो जाते हैं। साथ ही किसी अखबार घराने को दो चार प्रतियां भेजने में रुचि भी नहीं रहती। इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम को देखें तो गांवों को बिजली ही नहीं मिल पाती, अब तो यह हालत छोटे और मध्‍यम शहरों की भी है।

मुंबई जहां मैं रहता हूं, के आखिरी उपनगर दहिसर से केवल 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वसई से लेकर आगे तक के उपनगरों में रोज दस से बारह घंटे बिजली नहीं रहती, समूचे देश की भी स्थिति बिजली के मामले में यही है। देश के दो चार राज्‍य ऐसे होंगे जिन्‍हें छोड़कर हर जगह बिजली की बेहद कमी है। साथ ही गांवों में लोगों को केबल के 200-300 रुपए महीना देना भारी लगता है। लाखों लोग आज भी इस स्थिति में है रंगीन तो छोडि़ए श्‍याम श्‍वेत टीवी भी नहीं खरीद सकते। दूसरों के यहां टीवी होता है, उसे टुकर टुकर देखते रहते हैं। बच्‍चे सपने बुनते रहते हैं कि बड़ा होऊंगा तब टीवी जरुर खरीदूंगा। इसलिए टीवी समाचारों से एक बड़ा वर्ग इन तीन वजहों से वंचित हो जाता है। अब बात करते हैं वेब समाचारों का। जब बिजली ही नहीं तो कंप्‍यूटर कैसे चलेगा। एक कंप्‍यूटर और स्‍टेबलाइजर के लिए कम से कम 30-35 हजार रुपए खर्च करने होते हैं जो हरेक के बस की बात नहीं है।

लेकिन अब तो रेडियो एफएम के साथ 30 रुपए से लेकर 500 रुपए तक की हर रेंज में ईयर फोन के साथ मिलते हैं। दो पैंसिल सेल डाल लिए, और जुड़ गए देश, दुनिया से। यह आकाशवाणी है...या...बीबीसी की इस पहली सभा में आपका स्‍वागत है...। आया न मजा.... क्‍या खेत, क्‍या खलिहान, पशुओं का दूध निकालते हुए, उन्‍हें चराते हुए, शहर में दूध व सब्‍जी बेचने जाते हुए, साइकिल, मोटर साइकिल, बस, रेल, दुकान, नौकरी, कार ड्राइव करते हुए सब जगह समाचार, मनोरंजन वह भी 30 रुपए के रेडियो में..रेडियो खराब भी हो गया तो ज्‍यादा गम नहीं....नया ले लेंगे फिर मजदूरी कर। लेकिन मौजूदा आकाशवाणी, रेडियो सेवा चलाने वाले लोगों की जरुरत के अनुरुप खबरें और कार्यक्रम नहीं दे पा रहे हैं जिससे इनका प्रचलन कम हुआ है। मेरे मित्र सेठ होशंगाबादी बता रहे थे कि मध्‍य प्रदेश और महाराष्‍ट्र के अनेक ऐसे इलाकों में मैं घूमा हूं जहां ढोर चराते लोग और ग्‍वाले, साइकिल पर जाते लोग रेडियो कान से सटाकर रखते थे लेकिन अब यह प्रचलन घटा है। रेडियो श्रोता संघ तो पूरी तरह खत्‍म से हो गए हैं। रेडियो सेवा देने वाले यदि लोगों की आवश्‍यकता पर शोध करें तो रेडियो प्रिंट, टीवी और वेब माध्‍यम को काफी पीछे छोड़कर सबसे शक्तिशाली माध्‍यम बन सकता है।

April 12, 2007

आत्‍महत्‍या से पहले विदर्भ के किसान की चिटठी


To,
Police Station Officer,
Police Station,
Wadgoan,

I humbly submit that applicant govinda zeetruji junghare at-post- mettikheda taluka-kalamb distt.-yavatmal.
Subject-my family shocked as farm land is without being sowing any crop. Who can we live without doing farming?

I have no bullock for farming my land;
I have no money for seed, what is to be done?
I can not think more. Money lenders are daily coming to my home at abusing me I tried to arrange to money to repay but I could not arrange to money.

I did apply for crop loan case in bank but banker too has not given me the money yet.

Money Leander has threatened me to arrange the money otherwise they will take away tinplates fitted to my house.
But I am not having five paisa today how can repay my loan,

I think over this crisis lot of time and then decided I should die instead of living I should hang myself or take poison to die. Money Leander REKHA NAMDEO NIKHADE'S debt RS.5000/- has a quarrel with me and manager of money Leander nurruseth is always keeping to my house to asking for RS.4000/- to pay back this has made me mad.

No banker has given me the loan.

I have my wife two son and marriageable daughter and how to do daughter's marriage,

I have no money at home one son is critical ill and suffering from T.B.
Nobody should trouble my family hence I have written this letter in detail

Yours faithfully
Shri Govinda Zeetruji Junghare

April 11, 2007

कायर होते हैं बेनाम

कई दिनों से सोच रहा था कि बेनामों के बारे में कुछ लिखा जाए....क्‍योंकि बगैर मां बाप या आईडी के घूम रहे इन बेनामों की भी सुध लेना जरुरी है। क्‍योंकि सरकार भी स्‍ट्रीट चाइल्‍डों के लिए चलते फिरते स्‍कूल चलाती है।
हालांकि, इन बच्‍चों के नाम होते हैं, फिर चाहे पूरे और सलीके के नाम न हो। ये नाम भी हो सकते हैं...कालू, धौलू, लालू..या भौंदू....लेकिन नाम जरुर होता है। लेकिन इंटरनेट यूजरों के नाम नहीं है, यह जानकर अचरज होता है कि क्‍या ये मैटरनिटी अस्‍पतालों के बजाय इंटरनेट पर पैदा हुए हैं क्‍या, जहां एक अदद मां बाप न मिल सके। इंटरनेट पर बच्‍चों को गोद लेने संबंधी भी विज्ञापन लगे रहते हैं तो फिर ये बेनाम वहां क्‍यों नही एप्‍लाई कर देते ताकि कोई इन्‍हें दत्‍तक ले लें और नाम रखे दे..फिर चाहे नाम इनका भौंदू ही क्‍यों न रखा जाए। मेरा ख्‍याल है कि अगर ये बेनाम एक परखनली ही पकड़ लेते तो परखनली शिशु होने का गौरव इन्‍हें मिल जाता। अपने बॉयोडाटा में भी लिख सकते थे कि भारत का दूसरा परखनली शिशु...तीसरा....पांच सौवां...आदि।

कल नारद पर देखा कि भाई प्रमोद सिंह ने लिखा कि इन बेनामों का बाप कौन है ? मजा आ गया। चिट्ठेकारों की दुनिया में मैं पुराना नहीं हूं और पुराना होना भी नहीं चाहता। हमेशा नया रहना चाहता हूं। ब्‍लॉग पर परोसी सामग्री पर टिप्‍पणियां मिलती हैं...खट्टी...मिठ्ठी...कड़वी..कसैली...सुंदर। अच्‍छा लगता है टिप्‍पणियां देखकर, पढ़कर। दूसरे लेखकों के ब्‍लॉग और टिप्‍पणियां भी पढ़ता हूं, काफी नई चीजें सीखने, जानने को मिल रही हैं। नए दोस्‍त बन रहे हैं। मैं अपने ब्‍लॉग पर आने वाली सभी टिप्‍पणियों को जस का तस प्रकाशित करने में विश्‍वास करता हूं और सभी को प्रकाशित भी की है लेकिन कल एक बेनाम टिप्‍पणी को जानबूझकर रोक दिया। दूसरे ब्‍लॉगों पर भी देखता हूं बेनाम टिप्‍पणियां। जो बेनाम टिप्‍पणी मैंने प्रकाशन से रोकी वह यह थी :

कमल जी, कृपा करके ब्लॉग लिखें, इधर-उधर की सामग्री उठाकर दिन भर में दस-बीस पोस्ट ठोक देना कोई अच्छी बात नहीं है, यह आपकी आज़ादी का मामला भी नहीं है. मुझे ऐसा लिखने पर इसलिए मजबूर होना पड़ रहा है क्योंकि आपके इस अरचनात्मक लेखन की बाढ़ की वजह से अच्छी पोस्ट्स एक-एक करके नीचे से निकलती जाती है, अपने से बेहतर लिखने वालों की पोस्ट की असमय मृत्यु का पाप अपने सिर मत लीजिए. बाक़ी लोग भी नेट सर्फ़ करते हैं और आप जो परोस रहे हैं उसके लिए आपकी ज़रूरत नहीं है, वह यूँ ही उपलब्ध है. बुरा न मानिएगा और ध्यान से सोचिएगा.

मेरा निजी तौर पर मानना है कि जब हम लिखते हैं तो या टिप्‍पणी करते हैं और वह सच है, चाहे कितनी ही कड़वी हो या मीठी सीधे अपने नाम से लिखनी चा‍हिए। बेनाम का तो सीधा मतलब है कायर। टिप्‍पणी देते समय जो अच्‍छा लग रहा है वह लिख रहे हैं तो फिर बेनाम क्‍यों। हिम्‍मत होनी चाहिए अपना नाम बताने की। यह मत सोचिए बुरा लगेगा या अच्‍छा। सच्‍चा दोस्‍त वही है जो सच कहें अब चाहे कड़वी बात हो या मीठी। मैं सभी बेनामों से कहना चाहूंगा, अनुरोध करूंगा कि वे अपनी‍ टिप्‍पणी में नाम जरुर दें अन्‍यथा बेनाम टिप्‍पणी के प्रकाशन को रोकना बेहतर लगेगा। सभी ब्‍लॉगर मित्रों से अनुरोध है कि वे भी बेनामों की‍ टिप्‍पणियों को टिप्‍पणी पाने की लालसा में प्रकाशित न करें तो ठीक रहेगा।

April 10, 2007

पानी के लिए भारत से युद्ध करेगा पाकिस्तान


पाकिस्तान अब भारत के साथ मौजूदा जल विवाद पर लड़ाई लड़ना चाहता है। पाकिस्‍तान के विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी ने पाकिस्तान के जिओ टीवी को बताया है कि समय के साथ दोनों देशों के रिश्ते सुधरे हैं, लेकिन इस बात की आशंका है कि जल विवाद को लेकर दोनों देशों के बीच भविष्य में युद्ध हो सकते हैं। हालांकि वे कहते हैं कि भारत और पाक में सर क्रीक, सियाचिन और कश्मीर के मुद्दे पर अच्छी प्रगति हुई है। यहां एक टिप्‍पणी हमारे एक मित्र की...पहले कई लड़ाईयों में मात खा चुका पाकिस्‍तान सुधरा नहीं है। लगता है कि इस बार उसे भरपूर सबक सीखाना होगा ताकि तनाव को हमेशा के लिए खत्‍म किया जा सके। सीमापार आंतकवाद भी बातचीत से नहीं अब मार से ही हल होगा।

जवान दिखने की हसरत ने ली अन्‍ना की जान

प्लेब्वाय मैगजिन की पूर्व माडल अन्ना निकोल स्मिथ छरहरा और जवान दिखने के चक्‍कर में इस दुनिया से ही विदा हो गई। दरअसल अन्‍ना जवान दिखने के लिए हारमोन के साथ-साथ कई अन्य दवाएं भी ले रही थीं। इसे वह इंजेक्शन के जरिए लेती थी। उसके शव के परीक्षण के दौरान शरीर के एक हिस्से पर इंजेक्शन के निशान मिले हैं। वहीं पर एक फोड़ा भी दिखा, जिसमें मवाद भरा था। संभवत: इस फोड़े के रास्ते बैक्टीरिया खून में चले गए होंगे। इससे अन्‍ना के शरीर का तापमान 105 डिग्री पर पहुंच गया होगा। इस दौरान जब अन्ना ने इंजेक्शन लिया होगा तो उसके शरीर में रिएक्शन हो गया और वह दुनिया से विदा हो गई। हारमोन का यूज मांसपेशियों को मजबूत करने, चरबी से मुक्त और जवान बने रहने के लिए किया जाता है। अन्ना ने अपने से 63 साल बड़े अरबपति शौहर जे हावर्ड मार्शल से शादी की थी। इससे पहले भी उन्होंने एक शादी की थी। माना जाता है कि पैसे की चाहत में उन्होंने मार्शल से ब्याह रचाया था।

April 9, 2007

नीलोफर जी लोग आपके साथ हैं...

पाकिस्‍तान की पर्यटन मंत्री के खिलाफ जो फतवा इस्‍लामाबाद की लाल मस्‍जिद के मौलानाओं ने जारी किया है, उसके खिलाफ हमें अनेक प्रतिक्रियाएं मिली हैं। इनमें अधिकतर का यही कहना है कि नीलोफर जी हम आपके साथ हैं और इस तरक के फतवे बकवास से ज्‍यादा कुछ नहीं हैं। इस्‍लामाबाद की लाल मस्जिद के मौलानाओं ने नीलोफर बख्तियार को मंत्रिमंडल से हटाने की मांग की है। इन मौलानओं का कहना है कि नीलोफर ने फ्रांस में पैराग्लाइडिंग के दौरान 'अश्लील तरह से' तस्वीर खिंचवाई।

दैनिक डान की एक रिपोर्ट के मुताबिक लाल मस्जिद के दारुल अफ्ता ने जारी फतवे में कहा कि सरकार नीलोफर को सजा दे और बर्खास्त करे। मांग करने वाले मौलानाओं में अब्दुल अजीज और अब्दुर राशिद गाजी मुख्‍य हैं जिन्‍हें परवेज मुशर्रफ के प्रबुद्धतापूर्ण उदारवाद की कट्टर हिमायतियों में से जाना जाता है। इस मुद्दे को हल करने के लिए पाकिस्‍तान के वरिष्ठ नेताओं ने अजीज और गाजी से बंद कमरे में मुलाकात की है।

स्वास्थ्य राज्य मंत्री शहनाज शेख का कहना है कि दारूल अफ्ता के पास किसी के खिलाफ फतवा जारी करने का अधिकार नहीं है। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग की अध्यक्ष अस्मा जहांगीर ने कहा कि फतवा को कोई महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। अपनी मनमर्जी से कोई फतवा जारी करने का उनका क्या अधिकार है। बेनजीर भुट्टो की सूचना सचिव शेरी रहमान का कहना है कि किसी को भी कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। भारत में एक टीवी चैनल ने छुपे कैमरे से कुछ महीने पहले स्‍टोरी दिखाई थी जिसमें बताया गया था कि फतवे पैसे लेकर भी जारी किए जाते हैं।

अब तो सुधर जाओ मौलानाओं...........

इस्‍लामाबाद की लाल मस्‍जिद के मौलानाओं ने शरीयत कानून लागू करने और संगीत पर पाबंदी लगाने की मांग के बाद वहां की पर्यटन मंत्री नीलोफर बख्तियार को मंत्रिमंडल से हटाने की मांग की है। इन मौलानओं का कहना है कि नीलोफर ने फ्रांस में पैराग्लाइडिंग के दौरान 'अश्लील तरह से' तस्वीर खिंचवाई।

दैनिक डान की एक रिपोर्ट के मुताबिक लाल मस्जिद के दारुल अफ्ता ने जारी फतवे में कहा कि सरकार नीलोफर को सजा दे और बर्खास्त करे। मांग करने वाले मौलानाओं में अब्दुल अजीज और अब्दुर राशिद गाजी मुख्‍य हैं जिन्‍हें परवेज मुशर्रफ के प्रबुद्धतापूर्ण उदारवाद की कट्टर हिमायतियों में से जाना जाता है। इस मुद्दे को हल करने के लिए पाकिस्‍तान के वरिष्ठ नेताओं ने अजीज और गाजी से बंद कमरे में मुलाकात की है।

स्वास्थ्य राज्य मंत्री शहनाज शेख का कहना है कि दारूल अफ्ता के पास किसी के खिलाफ फतवा जारी करने का अधिकार नहीं है। पाकिस्तान मानवाधिकार आयोग की अध्यक्ष अस्मा जहांगीर ने कहा कि फतवा को कोई महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। अपनी मनमर्जी से कोई फतवा जारी करने का उनका क्या अधिकार है। बेनजीर भुट्टो की सूचना सचिव शेरी रहमान का कहना है कि किसी को भी कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। भारत में एक टीवी चैनल ने छुपे कैमरे से कुछ महीने पहले स्‍टोरी दिखाई थी जिसमें बताया गया था कि फतवे पैसे लेकर भी जारी किए जाते हैं।

April 7, 2007

जहर मत घोलना वंदे मातरम् पर


वंदे मातरम् तो मातृप्रेम का गीत है, लेकिन विश्‍व के अनेक देशों के राष्‍ट्रगीत तो ऐसे हैं जिनसे दूसरे देशों की जनता को काफी ठेस पहुंचती है। ये देश दूसरे देश के अपमान या मानहानि के बजाय स्‍वयं के देश की प्रजा के स्‍वाभिमान, अभिमान और गुमान की ही पहली चिंता करते हैं। लेकिन हमारी बात अलग है। भारत ने सदैव विश्‍वशांति को प्राथमिकता दी है।

उत्‍तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव में एक सीडी और मुस्लिमों का अल्‍पसंख्‍यक दर्जा खत्‍म करने को लेकर खूब विवाद छिड़ा हुआ है। ऐसे में विनय कटियार ने कहा है कि उत्‍तर प्रदेश में यदि भाजपा सत्‍ता में आई तो सभी स्‍कूलों में वंदे मातरम् गाना अनिवार्य बनाया जाएगा। इस राष्‍ट्रगीत पर पहले भी बहुत विवाद हो चुका है। देश के पहले राष्‍ट्रपति डॉ राजेन्‍द्र प्रसाद भी चाहते थे कि संसद की कार्यवाही वंदे मातरम् के गायन से हो, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अब वंदे मातरम् एक बार फिर चर्चा में है लेकिन कांग्रेसियों, भाजपाइयों, सपा और बसपा वालों सभी से अनुरोध हैं कि यह गीत किसी की जागीर नहीं है, यह देश की जागीर है और इस पर विवाद मत छेड़ना। जान लो....दूसरे देशों के राष्‍ट्रगीत जिनसे बेहतर है मेरा वंदे मातरम्....

छोटे छोटे देशों के राष्‍ट्रगीत भी अनेक बार क्रूर और हिंसक होते हैं। इन्‍हें आततायियों और शत्रु को फटकार लगाने के लिए लिखा गया है। छोटे से देश डेनमार्क का उदाहरण लें। डेनमार्क के राष्‍ट्रगीत में एक लाइन है जो राजा क्रिश्‍टीएन के वीरत्‍व को उकसाती है। उनकी तलवार इतनी तेज चलती थी, शत्रु के कलेजे और सिर को एक साथ काट फेंकती थी। मध्‍य अमरीकी देश ग्‍वाटेमाला के राष्‍ट्रगीत में एक लाइन है-किसी आततायी को तेरे चेहरे पर नहीं थूकने दूंगा ! बल्‍गारिया के राष्‍ट्रगीत में भी आहूति की बात कही गई है। बेशुमार योद्धाओं को बहादुरी से मारा है-जनता के पवित्र उद्देश्‍य के लिए। चीन के राष्‍ट्रगीत में खून से सनी एक लाइन है -हमारे मांस और खून का ढ़ेर लगा देंगे-फिर से एक नई महान चीन की दीवार बनाने के लिए....।

अमरीका में मेरीलैंड नामक एक राज्‍य है। इस राज्‍य का भी राज्‍यगीत या राष्‍ट्रगीत है, जो वीरत्‍व से भरा पड़ा है, इसमें शब्‍द हैं कि- बाल्टिमोर की सड़कों पर फैला हुआ है देशभक्‍तों का नुचा हुआ मांस- इसका बदला लेना है साथियों...! इन सभी की तुलना में सुजलां, सुफलां मलयज शीतलाम् अथवा मीठे जल, मीठे फल और ठंडी हवा की धरती जैसे विचारों का विरोध हो रहा है। यह कितना साम्‍प्रदायिक लग रहा है?

ब्रिटेन का राष्‍ट्रगीत ‘गॉड सेव द क्विन (या किंग)’ को 19वीं सदी की शुरूआत में स्‍वीकृति मिली। वर्ष 1745 में इसे पहली बार सार्वजनिक तौर पर गाया गया, लेकिन इसकी रचना किसने की, किसने संगीत दिया इस विषय में जरा अस्‍पष्‍टता है। लेकिन इससे पूर्व जिस गीत ने राष्‍ट्रगीत का दर्जा पाया, वह कैसे भाव व्‍यक्‍त करता है ? रुल ब्रिटानिया, रुल दि वेव्‍ज/ब्रिटंस नेवर शेल बी स्‍लेव्‍ज (देवी ब्रिटानिया राज करेगी, समुद्रों पर राज करेगी, ब्रिटिश कभी गुलाम नहीं बनेंगे) इस गीत में आगे है- तेरे नगर व्‍यापार से चमकेंगे/हरेक किनारे पर तेरी शोभा होगी....।

बेल्जियम का राष्‍ट्रगीत ‘ब्रेबेनकॉन’ था। जिसे एक फ्रेंच कामेडियन ने लिखा था। इस गीत में डच प्रजा के खिलाफ विष उगला गया था। इसके शब्‍दों में तीन बार संशोधन करना पड़ा। वर्ष 1984 में आस्‍ट्रेलिया ने ‘एडवांस आस्‍ट्रेलिया फॉर’ राष्‍ट्रगीत निश्चित किया। रुस का राष्‍ट्रगीत ‘जिन सोवियत स्‍कोगो सोयूजा’ (सोवियत संघ की प्रार्थना) 1944 में स्‍वीकार किया गया और 1814 में अमरीका ने फ्रांसीस स्‍कॉट नामक कवि के ‘स्‍टार स्‍पेंगल्‍ड बेनर’ राष्‍ट्रगीत के रुप में स्‍वीकार किया। इससे पूर्व रुस ने ‘इंटरनेशनल’ को राष्‍ट्रगीत माना था।

इजरायल का राष्‍ट्रगीत ‘हा-निकवा’ केवल इतना ही है। दिल के अंदर गहरे गहरे तक/ यहूदी की आत्‍मा को प्‍यास है/ पूर्व की दिशा/ एक आखं जायोन देख रही है/ अभी हमारी आशाएं बुझी नहीं हैं/ दो हजार वर्ष पुरानी हमारी आशा/ हमारी धरती पर आजाद प्रजा होने की आशा/ जायोन की धरती और येरुश्‍लम...। फ्रांस का राष्‍ट्रगीत ‘लॉ मार्सेस’ विश्‍व के सर्वाधिक प्रसद्धि राष्‍ट्रगीतों में एक है। वर्ष 1792 में फौज के इंजीनियर कैप्‍टन कलोड जोजफ रुज दि लिजले ने अप्रैल महीने की एक रात यह गीत लिखा और इसके बाद इतिहास में हजारों फ्रांसीसियों ने इस गीत के पीछे अपने को शहीद कर दिया। बहुचर्चित इस राष्‍ट्रगीत की दो लाइनें इस प्रकार है अपने ऊपर जुल्‍मगारों का रक्‍तरंजित खंजर लहरहा है। तुम्‍हें सुनाई देता है अपनी भूमि पर से कूच करके आते भयानक सैनिकों की गर्जनाएं..?...साथी नागरिकों ! उठाओं शस्‍त्र, बनाओं सेना/ मार्च ऑन, मार्च ऑन/ दुशमनों के कलुषित रक्‍त से अपनी धरती को गीली कर दो...। फ्रांस के इस राष्‍ट्रगीत की इन दो पक्तिंयों की चर्चा समय असयम फ्रांस और उसके पड़ौसी देशों में होती रहती है। अभी इन दो पक्तियों की बजाय जो नई दो पंक्तियां सुझाई गई है वे थीं स्‍वाधीनता, प्रियतम स्‍वाधीनता/ शत्रु के किले टूट गए हैं/फ्रेंच बना, अहा, क्‍या किस्‍मत है/ अपने ध्‍वज पर गर्व है.../ नागरिकों, साथियों/ हाथ मिलाकर हम मार्च करें/ गाओं, गाते रहो/ कि जिसने अपनी गीत/ सभी तोपों को शांत कर दें..लेकिन फ्रांस की जनता ने इस संशोधन को स्‍वीकार नहीं किया। मूल पंक्तियों मे जो खुन्‍नस थी, जो कुर्बानी भाव था वह इनमें नहीं था। आज भी पुरानी पंक्तियां ज्‍यों की त्‍यों हैं और फ्रांसीसी फौजी टुकडि़यां इन्‍हें गाते गाते कूच करती हैं।

शायद सर्वाधिक विवादास्‍पद राष्‍ट्रगीत जर्मनी का ‘डोईशलैंड युबर एलिस’ है। जर्मनी के कितने ही राज्‍य पूरे गीत को राष्‍ट्रगीत के रुप में मानते थे। हिटलर के जमाने में भी यही राष्‍ट्रगीत था। लेकिन 1952 से जर्मनी ने तय किया कि केवल तीसरा पैरा ही राष्‍ट्रगीत रहेगा। जर्मनी के राष्‍ट्रगीत का पहला पैरा इस प्रकार है जर्मनी, जर्मनी सभी से ऊपर/जगत में सबसे ऊपर/ रक्षा और प्रतिरक्षा की बात आए तब/ कंधे मिलाकर खड़े रहना साथियों/मियुज से मेमेल तक/ एडीज से बेल्‍ट तक/जर्मनी, जर्मनी सभी से ऊपर/जगत में सबसे ऊपर... यह गीत जबरदस्‍त चर्चा का विषय बने यह स्‍वाभाविक है, आज मियुज नदी फ्रांस और बेल्जियम में बहती है। बेल्‍ट डेनमार्क में है और एडीज इटली में है। जर्मनी के इस राष्‍ट्रगीत में पूरे जर्मनी की सीमाओं के विषय में बताया गया है। कितने ही लोगों के अनुसार यह ग्रेटर जर्मनी है और इसमें से उपनिवेशवाद की बू आती है जबकि जर्मनी की ऐसी कोई दूषित भावना नहीं है। जहां फ्रांस में पंक्तियां बदलने की चर्चा होती है, वहां जर्मनी में ऐसा कुछ नहीं है। केवल जर्मनी ने ही राष्‍ट्रगीत के रुप में अहिंसक तीसरे पैरे को राष्‍ट्रगीत राष्‍ट्रगीत में स्‍वीकार किया है। इटली में भी 1986 में एक आंदोलन हुआ था। वहां राष्‍ट्रगीत जरा कमजोर महसूस किया जा रहा था। जनमत का कहना था कि संगीतज्ञ बर्डी के बजाय तेजतर्रार देशभक्ति वाले का गीत राष्‍ट्रगीत होना चाहिए। राष्‍ट्रगीत चर्चा में आए इससे चिंता नहीं करनी चाहिए।

प्रत्‍येक देश के राष्‍ट्रगीत में स्‍वाभिमान, गर्व होता है, राष्‍ट्रध्‍वज और राष्‍ट्रगीत ही ऐसी प्रेरणा होती है जिसके लिए सारी की सारी पीढि़यां सर्वस्‍व न्‍यौछावर कर देती हैं। भारत में फांसी पर चढ़ने वाले क्रांतिकारियों के अंतिम शब्‍द होते थे ‘वंदे मातरम्...!...’

April 6, 2007

रेगिस्‍तान पर खतरा

बीबीसी हिंदी वेबसाइट पर एक खबर आई है कि पाकिस्‍तान की सीमा से लगे रेगिस्‍तान में पिछले साल आई बाढ़ ने यहां भारी विनाश किया और अब यहां के मौसम में बदलाव देखा जा रहा है। जगह जगह नए जीव जंतु और वनस्‍पतियां दिखाई दे रही हैं तो मौजूदा चीजें खतरें में पड़ती जा रही हैं। पूरी रिपोर्ट के लिए यहां बीबीसी के लिंक को क्लिक कीजिए :
http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/04/070404_rajasthan_desert.shtml

जींस पैंट व हॉफ शर्ट नहीं चलेगा यहां

छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय में अब जो भी अधिकारी जींस पैंट और हॉफ शर्ट पहनकर आएगा उसकी खैर नहीं। अदालत ने अनौपचारिक कपड़े पहनकर आने वाले सरकारी अधिकारियों को चेतावनी दी है कि कपड़े पहनने हैं तो सलीके के वरना डांट फटकार से उन्‍हें शर्मसार होना पड़ सकता है। छत्‍तीसगढ़ उच्‍च न्‍यायालय के मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू ने ऐसे तड़क-भड़क वाले पहनावे के साथ आए कुछ अधिकारियों को फटकार भी लगाई। न्यायमूर्ति ने सरकारी वकीलों के माध्यम से इन्हें औपचारिक ड्रेस में आने के निर्देश दिए हैं। अदालत में बुधवार को नगर निगम आयुक्त एमएम हनीफी मुख्य न्यायाधीश के समक्ष जवाब देने पहुंचे। उस समय उन्होंने सफेद हाफ शर्ट तथा पैंट पहन रखी थी। मुख्य न्यायाधीश ने इसके पूर्व भी भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी को फटकारा था, जो जींस व हाफ शर्ट में आए थे। न्यायिक अधिकारियों का कहना है कि अदालत में पेश होने वाले वकीलों के लिए ड्रेस कोड लागू होता है। सरकारी अधिकारियों पर भी ड्रेस कोड लागू होना जरूरी है। सरकारी अधिकारियों को औपचारिक पैंट, शर्ट, कोट एवं टाई पहन कर आना चाहिए।


April 5, 2007

किसान कार के साथ दफन

एक बड़ी मजेदार खबर आई है कि तमिलनाडु में एक किसान को उसकी मनपसंद कार के साथ दफनाया गया है। पुराने समय में पिरामिड में सम्राटों की ममी के साथ उनकी प्‍यारी वस्‍तुओं और नौकरों तक को दफनाया जाता था लेकिन अब ऐसा ही एक किस्‍सा तमिलनाडु के शीवापुरम गांव में घटा है। तमिलनाडु के कुम्‍भकोणम के समीप इस गांव में 64 वर्षीय किसान नारायण स्‍वामी का देहांत हो गया। इस अमीर किसान के परिवार में तीन पुत्र और इतनी ही बेटियां हैं। इस किसान ने 1958 में मोरिस माइनोर कार खरीदी थी। नारायण स्‍वामी अपनी इस कार को बेहद चाहते थे और उन्‍होंने यह इच्‍छा जताई थी कि उनके मरने पर यह कार भी उनके साथ ही दफनाई जाए। नारायण स्‍वामी की इच्‍छा के मुताबिक सजाई धजाई इस कार में उनके मृत शरीर को रखा गया और बुलडोजर से एक बड़ा गढ़ढा खोदकर दफना दिया गया।

गूगल नहीं ढूंढ सका सांप

गूगल दुनियाभर के करोड़ों वेबपेज पलफ झपकते ही खंगाल सकती है लेकिन न्‍यूयार्क के उपनगर मैनहट्टन में स्थित गूगल मुख्‍यालय में मौजूद एक भारी भरकम सांप को पकड़ने में उसके कर्मचारियों के पसीने छूट गए। हुआं यू कि गूगल कंपनी में काम करने वाला कोई कर्मचारी सोमवार को अपने पालतू सांप को आफिस ले आया। लेकिन उसके पलक झपकते ही सांप छू मंतर हो गया। गूगल के कर्मचारियों को जैसे ही इस सांप के गायब होने की खबर मिली तो वे सहम गए। आनन फानन में कपंनी के सुरक्षाकर्मियों को इस काम पर लगाया गया। कड़ी मशक्‍कत के बाद सुरक्षाकर्मी रात को इस सांप को काबू कर पाए। कंपनी की प्रवक्‍ता एलन वेस्‍ट ने कर्मचारी की पहचान गुप्‍त रखते हुए बताया कि सांप को उसके मालिक को सौंप दिया गया है। लेकिन साथ ही इस कर्मचारी को चेतावनी भी दी गई है।

April 4, 2007

हरियाणा के 28 गांवों में क्रिकेट प्रेमियों की खैर नहीं

लगभग 25 साल पहले भारत को विश्व कप में खिताबी जीत दिलाने वाले पूर्व कप्तान कपिल देव के राज्य हरियाणा के 28 गांवों ने इस खेल पर रोक लगाने का फैसला किया है। इन गांवों की पंचायतों ने न सिर्फ क्रिकेट खेलने बल्कि उसकी चर्चा करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया है। इस प्रतिबंध को तोड़ने वाले परिवारों की सात पीढि़यों को सामाजिक दंड भुगतना पड़ेगा।

हरियाणा के जींद जिले में 28 गांवों की सर्वजातीय दाड़न खाप ने इन गांवों में क्रिकेट खेलने और देखने पर तुरंत प्रभाव से पूरी तरह रोक लगा दी है। अब जो भी इन गांवों में क्रिकेट खेलेगा उन पर जुर्माना लगाने के अलावा उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाएगा। पंचायतों ने अपने इस फैसले को सख्ती से लागू कराने और निगरानी रखने के लिए खाप के हर गांव में दो सदस्यीय समिति का भी गठन कर दिया है। पंचायत ने क्रिकेट खेलने पर जिस सामाजिक 'धेला कोड़ी दंड' का प्रावधान किया है, वह सिर्फ एक पीढ़ी को नहीं बल्कि परिवार की सात पीढि़यों को भुगतना पड़ेगा। इसे बाकायदा पंचायत की बही में लिखा जाएगा। पंचायत के इस फैसले के बाद 28 गांवों में क्रिकेट खेलना और देखना पूरी तरह बंद हो गया है। मेरी टिप्‍पणी ठीक ही किया, बच्‍चों को राष्‍ट्रीय खेल हॉकी सीखाना। क्रिकेट में हो सकता है अगली बार हम बरमूडा से भी हार जाएं।

जनता जनार्दन की पीठ ठोकनी चाहि‍ए...

निठारी गांव की एक पांच वर्षीय बच्ची के साथ बलात्‍कार करने वाले अर्जुन को पीट पीटकर मार डालने पर वहां की आम जनता की पीठ ठोकनी चाहिए। यदि जनता ने उसे यह सजा नहीं दी होती तो क्‍या होता, अस्‍पताल की रिपोर्ट बनती, अर्जुन वकील करता और कुछ सजा पाता या बाइज्‍जती बरी हो जाता। लेकिन आम जनता ने बिल्‍कुल सही किया और जो लोग इसे गलत कह रहे हैं उनकी भी सार्वजनिक पिटाई होनी चाहिए। नागपुर में भी गुंडे अक्‍कू को जिस तरह अदालत परिसर में मारा गया, वह सही था। आम जनता यह कदम पूरी तरह दुखी होने के बाद ही उठाती है, पहले नहीं। कानून और प्रशासन जिस तरह लचर पचर हो गया है, उसमें जरुरी है कि आम जनता समूह में कानून अपने हाथ में ले लें। अब तो जनता को यह सोचना चाहि‍ए कि यदि उनके इलाके के पार्षद, विधायक, सांसद उनकी तकलीफों को दूर नहीं करते हैं तो उनकी भी घेराबंदी की जाए और उन्‍हें वापस बुलाने का अधिकार दिया जाए।

April 3, 2007

चरसियों का डॉन है खुन सा

अमरीका के तीन राष्‍ट्रपति सीनियर बुश, बिल क्लिंटन और जूनियर बुश ने अपनी खूब ताकत लगा ली लेकिन वे चरसियों के सरगना को नहीं पकड़ सके। मौजूदा राष्‍ट्रपति जॉर्ज बुश ने भले सद्दाम हुसैन को फांसी तक पहुंचा दिया और ईरान से भिड़ने की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन अमरीका के तीन-तीन राष्‍ट्रपति माफिया डॉन जनरल खुन सा का कुछ न बिगाड़ सके। पुणे में पिछले दिनों हुई रेव पार्टी के कुछ फोटो हमने कल अपने ब्‍लॉग पर लगाए थे और अब चरसियों के सरगना पर रिपोर्ट दी जा रही है, जो मेरी 27 मई 1993 को नागपुर से प्रकाशित अखबार लोकमत समाचार में भी छपी थी। यह सरगना अभी भी जिंदा है। आज ब्‍लॉग पर दी जा रही रिपोर्ट में कुछ और चरसियों के फोटो हैं, जो मैंने आज के लिए बचाकर रखे थे।

जनरल खुन सा अंतरराष्‍ट्रीय नशीले ड्रग्‍स बाजार का नंबर वन डॉन है। म्‍यानमार यानी बर्मा में इस नंबर वन डॉन का अड्डा है। म्‍यानमार के अंदरुनी जंगलों से यह डॉन विश्‍व की प्रतिदिन धीमी मौत वाले ड्रग के कारोबार का संचालन कर रहा है। अमरीकी राष्‍ट्रपति चुनाव के समय बिल क्लिंटन ने कहा था कि उनकी सरकार अमरीकी युवा पीढ़ी को ड्रग व्‍यसन से मुक्ति दिलाने के पीछे भारी बजटीय प्रावधान करेगी एवं अंतरराष्‍ट्रीय ड्रग बाजार के सुपरमैनों के रैकेट को तोड़ेगी। वैसे अमरीका की गुप्‍तचर संस्‍थाएं और नार्कोटिक्‍स विभाग भी इस ड्रग रैकेट को वश में करने में विफल रहा है। इसी वजह से पूर्व अमरीकी राष्‍ट्रपति सीनियर बुश और ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री जॉन मेजर की हिट लिस्‍ट में पनामा के नोरेगिआ और म्‍यानमार के खुन सा के नाम टॉप पर रहे।

खुन सा एक अरबपति है। विश्‍व के प्रमुख माफियाओं, तस्‍करों के साथ वह अपने ‘गोल्‍डन ट्रायंगल’ नामक जंगल से संपर्क में रहता है। अलग-अलग अंतरराष्‍ट्रीय भाषाओं के जानकार खुन सा की फोन डायरी में पांच नंबर हैं और ये पांचों विश्‍व के ड्रग साम्राज्‍य के मुख्‍य संचालक हैं। खुन सा छिपने के लिए जंगलों में नहीं रहता, अपितु गहरे जंगलों में उसकी विशाल जमीन पर दुनिया भर के लिए पर्याप्‍त हेरोइन का उत्‍पादन होता है, प्रक्रिया होती है। इसके अलावा अन्‍य नशीली दवांए तैयार की जाती है। खुन सा यदा-कदा ही दिखाई देता है लेकिन उसके तहत 20 हजार आधुनिक शस्‍त्रधारी मारफाड कमांडो की टुकड़ी है। यह टुकड़ी उत्‍पादन प्रक्रिया या नशीले पदार्थों की जंगल में खेती भी करती है। कई साल पहले जॉन गूनस्‍टोन नामक पत्रकार कड़ी मेहनत और कितनी ही सिफारिशों के बाद खुन सा के साम्राज्‍य में जा पाया।

गूनस्‍टोन ने लिखा कि वास्‍तव में तो खुन सा ने ड्रग विलेन खड़ा किया है। वहां नियमित रुप से सैन्‍य प्रशिक्षण दिया जाता है। छोटा स्‍कूल, अस्‍पताल और प्रार्थना के लिए बौद्ध मठ भी इस साम्राज्‍य में है। खुन सा स्‍वयं भी किसी अरबपति या विश्‍व के प्रमुख सुपर ड्रग मैन की अपेक्षा सुरक्षा अधिकारी ज्‍यादा नजर आता है। गहरे खाकी रंग का पैंट शर्ट और मध्‍यम शरीर वाले खुन सा ने इस क्षेत्र में अपने अड्डे खोल रखे हैं। खुन सा के पास स्‍टेनलैस स्‍टील रंग की टोयोटा कार है। रिमोट कंट्रोल से लेकर अनेक अति आधुनिक सुविधाएं इस डॉन की जेबों में रहती हैं।

म्‍यानमार के उत्‍तर पूर्व में ही मोंग नामक छोटे से गांव में 71 वर्षीय खुन सा का साम्राज्‍य है। इस गांव की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि इस माफिया डॉन को आसानी से पकड़ा जाना काफी कठिन है।
अमरीकन ड्रग प्रवर्तन एजेंसी खुन सा को डेविल कहती है। खुन सा का अजीब शौक यह है कि वह जिस रंग की मोटर कार काम में लेता है उसी रंग का घड़ी में पट्टा बांधता है। खुन सा यह व्‍यापार किसलिए करता है। इस सवाल के जवाब में उसका कहना है कि मेरे साथ जुड़े 20 हजार लोगों के सुख के लिए। अगर वे मेरा साथ छोड़ दें तो मैं अपना धंधा बंद करने के लिए तैयार हूं। खुन सा को कागजों पर नहीं पकड़ा जा सकता क्‍योंकि वह अफीम की खेती करता है ऐसा उसके खाते भी बोलते हैं। खुन सा ने इसके लिए एक शर्त रख दी है कि यदि पश्चिम के देश म्‍यानमार को वित्‍तीय राहत एवं अन्‍य मदद दें तो वह यह क्षेत्र छोड़ देगा। खुन सा इस तरह अपनी देशभक्ति जाहिर कर बर्मा के लोगों की सहानुभूति प्राप्‍त कर लेता है। उसके जंगल टाउन में उसकी भारी धाक है। यहां सभी को सवेरे छह बजे उठना और रात में दस बजे अनिवार्य रुप से सोना पड़ता है।

म्‍यानमारवासियों की अपेक्षा जनरल खुन सा के साम्राज्‍य में रहने वाले लोग काफी सुखी है, इसी कारण अब अधिक से अधिक लोग म्‍यानमार सरकार की अपेक्षा खुन सा के साम्राज्‍य की ओर दौड़ रहे हैं। म्‍यानमार सरकार में ऐसी दहशत है कि खुन सा धीरे-धीरे विशाल प्रजा को अपने साथ कर सरकार के विरुद्ध क्रांति कर म्‍यानमार का प्रमुख जनरल बन सकता है जैसा कि पनामा में जनरल नोरेगिआ ने किया था। खुन सा के साम्राज्‍य में रहने वाले लोग स्‍वयं को बर्मीय या म्‍यानमारी न कहकर सान (खुन सा के नाम पर) कहते हैं। खुन सा अफलातून विदेशी दारु भी बनाता है। आश्‍चर्यजनक बात तो यह है कि जंगल टाउन में नियमित रुप से भाषण दिया जाता है कि आप ड्रग के व्‍यसनी बने तो जिंदगी से हाथ धो बैठेंगे। खुन सा के जंगल टाउन में कोई भी ड्रग का सेवन नहीं करता और जो कोई इनका सेवन करने की कोशिश करता है, उसे सजा दी जाती है।

खुन सा के थाईलैंड में अनेक बंगले हैं, जहां उसकी पत्‍नी और बच्‍चे रहते हैं। थाईलैंड में खुन सा को कानूनी प्रवेश की इजाजत नहीं है। उसे पकड़ने पर 21 हजार डॉलर का इनाम घोषित है। खुन सा को यह काफी गलत लगा है। उसकी मात्र 21 हजार डॉलर की कीमत उसे अपमानजनक लगती है। खुन सा कहना है कि शायद थाई सरकार को मेरी कीमत का अनुमान नहीं है।

खुन सा कहता है कि शासकों का काम हमारे साथ सांठगांठ किए बिना नहीं चलता। इसी कारण हमारे जैसों को पकड़ने या साम्राज्‍य को नेस्‍तनाबूद करने की जहमियत कोई नहीं उठा सकता। अगर पकड़ लिए जाए तो भी छोड़ दिया जाता है। खुन सा इसी वजह से कहता है कि वी आर देयर गोल्‍ड माइन, देयर मनी ट्री इफ देयर इज नो। खुन सा के पास दक्षिण पूर्व एशिया में तीन अत्‍यंत अद्यतन रिफाइनरियां हैं जिनमें नशीली दवाओं का प्रोसेस होता है।

पनामा के पदमुक्‍त जनरल नोरेगिआ का कहना था कि खुन सा विश्‍व के किसी भी कार्पोरेट हेड की तुलना में कम महत्‍वपूर्ण नहीं है। वर्ष 1992 जनरल खुन सा के अनुसान अच्‍छा नहीं रहा। उसने 2500 टन अफीम पैदा की। उनका यह उत्‍पादन अमरीका यूरोप की मांग की तुलना में कम है। जबकि व्‍यसनियों की मांग बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है। चाइना व्‍हाइट नामक प्‍योर हेरोइन के दाम तो मनमाने वसूले जाते हैं। दस किलो अफीम से एक किलो हेरोइन बनती है।

हेरोइन से मृत्‍यु प्राप्‍त या बर्बाद अमरीकन, यूरोपियन खुन सा को जानते हैं और उसे मास मर्डरर कहते हैं। वह परिवारों और देश को ठंडे कलेजे खत्‍म कर रहा है। खुन सा इसके जवाब में कहता है कि मै तो अफीम की खेती कर 20 हजार से ज्‍यादा लोगों का भरण पोषण कर रहा हूं। अमरीका खुन सा का खून करना चाहता है, लेकिन उसे थाईलैंड या म्‍यानमार सरकार का साथ नहीं मिलता। राजनेताओं के अपने स्‍वार्थ संबंध जुड़े हुए हैं। इस समय तो ऐसी शंका व्‍यक्‍त की जा रही है कि कितने ही यूरोपियन एवं विकसति देश जनरल खुन सा जैसे माफिया डॉन को वित्‍तीय एवं हरसंभव सहायता दे रहे हैं ताकि अमरीका को अंदर ही अंदर खोखला किया जा सके। ये देश जानते हैं कि युद्ध में तो अमरीका को नहीं जीता जा सकता लेकिन उसकी युवा पीढ़ी को नशे के शिकंजे में कसकर उसे औद्योगिक, शैक्षिणक और तकनीकी तौर पर पीछे धकेला जा सकता है।
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April 2, 2007

इन चरसी लौंडे लौंडियों का क्‍या करे देश -फोटो



पुणे में पिछले दिनों हुई रेव पार्टी के कुछ फोटो एक मित्र ने मुझे भेजे। समझ नहीं आ रहा कि क्‍या लिखूं देश के इन चरसी कर्णधारों के बारे में। इसलिए शीर्षक में ही सब कुछ कहने का प्रयास किया है।



































































इस देश में रहना है तो बेटा ही पैदा करना होगा

आज एक खबर पढ़ रहा था कि मिर्जापुर में एक बाप ने बेटे की चाह में अपनी आठ वर्षीय बेटी की बलि दे दी। मिर्जापुर के समीप बबुराकलां गांव में एक अंधविश्‍वासी पिता राजमणि ने बेटा पाने के लिए अपनी इकलौती बेटी रिंकी जो आठ वर्ष की थी, गर्दन धड़ से अलग कर दी। इस दुष्‍ट बाप को एक ओझा ने बताया कि बेटी की बलि देने पर उसे बेटा प्राप्‍त हो सकेगा। राजमणि, इस बाप का नाम तो नागमणि भी नहीं होना चाहिए, ने अपने घर के आंगन में बेटी को मार डाला। रिंकी की मां शीला ने जब शोर मचाया तो गांव वाले आए और बाप व ओझा को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया।

क्‍या हम हिंदुस्‍तानी कभी नहीं सुधरेंगे। सरकार और समाज अपनी ओर से इस बात का लगातार प्रयास कर रहे हैं कि बेटी भी बेटा ही है, फिर हम सुधरना क्‍यों नहीं चाहते। मैं तो कहता हूं कि बेटे ज्‍यादातर नालायक होते हैं, बेटी ही अपने मां व बाप और परिजनों का बेहतर ख्‍याल रखती है हमेशा। लेकिन शायद ज्‍यादातर लोगों ने यह सोच रखा है कि तुम चाहे जो उखाड़ लो, हम नहीं सुधरेंगे। क्‍या इस राजमणि ने यह नहीं सोचा कि वह बगैर मां के पैदा हो गया था। क्‍या उसकी मां एक नारी नहीं है, क्‍या अकेले बाप ने उसे बगैर स्‍त्री के पैदा कर डाला। मैं तो कहता हूं कि जो लोग केवल बेटे चाहते हो, बेटियां नहीं, उन्‍हें सजा दी जानी चाहिए। इस दुष्‍ट बाप और बेटे ही पैदा करने की राय देने वालों को सरेआम फांसी पर लटकाना चाहिए। आपका क्‍या कहना है, जल्‍दी दीजिए अपनी टिप्‍पणी।