October 11, 2007

फीस के लिए हमबिस्‍तर होती हैं कैंब्रिज स्टूडेंट्स

कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की सैकड़ों स्टूडेंट्स बतौर कॉल गर्ल और स्ट्रीपर के रूप में काम कर रही हैं। जानते हैं इसकी वजह क्या है ? यूनिवर्सिटी की फीस और महंगी होती कॉलेज लाइफ। इंस्टीट्यूट के स्टूडेंट न्यूजपेपर ' वर्सिटी ' में इस बारे एक रिपोर्ट छपी है। 'वर्सिटी' के मुताबिक कैंब्रिज में आजकल अंडरग्रैजुएट लाइफ महंगी हो गई है और खासतौर से उनके लिए जो लग्जरी के साथ जीवन जीना चाहते हैं। न्यूजपेपर में यह भी छपा है कि स्टूडेंट्स यूनिवर्सिटी की फीस देने के लिए देह बेचने को मजबूर हैं। गौरतलब है कि यूनिवर्सिटी की सालना फीस 3.070 पाउंड है।

'वर्सिटी' ने एक स्टूडेंट के हवाले से दावा किया है कि उन्होंने फर्स्ट ईयर वर्किंग का आधा समय कॉल गर्ल के रूप में बिताया। इसके लिए उन्हें हर घंटे 50 पाउंड मिले। वह कहती हैं, 'इस दौरान मैंने जॉब भी किया लेकिन इससे मुझे ज्यादा आमदनी नहीं हो पाई। मैं दूसरी कई स्टूडेंट्स भी मिल चुकी हूं, जो यह काम करती हैं। एक बार जब आप इसे करते हैं, यह लुभाने लगता है। अगर आप बहुत जल्दी और आसानी से पैसा कमाना चाहते हैं, तो आपको यहां से दोनों चीजें मिलेंगी।' वह आगे कहती हैं, मैं एक रात में 1-7 क्लाइंट्स के साथ सोती हूं।

एक दूसरी स्टूडेंट कहती हैं, 'जब मैं स्ट्रीपर के तौर पर काम करती हूं तो मुझे हर डांस के लिए 100 पाउंड तक की रकम मिलती है।' एक दूसरी अंडरग्रैजुएट स्टूडेंट ने दावा किया कि उन्होंने फर्स्ट ईयर के दौरान 40-50 लोगों से सेक्स संबंध बनाए। उन्होंने कहा, 'इस दौरान मुझे हर हफ्ते 1 हजार पाउंड तक की रकम मिली। मैं 2 महीने के दौरान 40-50 मौकों पर क्लाइंट्स के साथ हमबिस्तर हुई।' कैंब्रिज में इस काम के लिए कई एजेंसियां है। एक घंटे के लिए क्लाइंट से 120 पाउंड चार्ज किया जाता था, जिसमें 50 पाउंड एजेंसी के खाते में चला जाता था और 50 पाउंड मुझे मिलते थे। 20 पाउंड ड्राइवर ले लेता था।

वह कहती हैं कि मैं एक रात में 1-7 क्लाइंट के साथ हमबिस्तर हुई। क्लाइंट का एज ग्रुप भी अलग-अलग था। सबसे कम उम्र का क्लाइंट 18 साल का था जबकि सबसे अधिक दिन का 80 साल का। वह आगे कहती हैं कि मुझे ट्रिनिटी से भी बुलावा आया था, लेकिन मैं वहां नहीं गई। लड़कियों का मानना है कि यह कॉलेज में भी मुमकिन है, लेकिन व्यवस्था अच्छी होनी चाहिए।

एक और अंडरग्रैजुएट स्टूडेंट्स जो स्ट्रीप डांस करने के लिए दूसरे शहरों में जाती हैं, कहती हैं- यह ऐसा पल होता है, जिसे मैं करना नहीं चाहती, लेकिन इससे कैरेक्टर बिल्डप होता है। मुझे अपने किसी जान पहचान वाले के सामने डांस करने मे काफी झिझक होती है। लेकिन सब लोग ऐसा कर रहे हैं। जो भी हो टीचर्स के लिए यह चिंता का विषय है। वे स्टूडेंट्स की हर संभव सहायता की कोशिश कर रहे हैं ताकि स्टूडेंट्स को ऐसा न करना पड़े। नवभारत टाइम्‍स से साभार

September 24, 2007

क्‍या खूब लगती हो, ज्‍यादा सैलेरी पाती हो...

अच्छा दिखने के बड़े फायदे होते हैं , हम ऐसा सुनते आए हैं। लेकिन अब यह बात साबित भी हो गई है। एक नए सर्वे में यह बात सामने आई है कि अच्छे दिखने वाले लोग अपने सहयोगियों से ज्यादा कमाते हैं। तनख्वाह का यह फर्क मामूली नहीं है। सर्वे के मुताबिक आकर्षक पुरुष और खूबसूरत महिलाएं अपने दफ्तर में सबसे खराब (बदसूरत) दिखने वाले सहयोगी से करीब 15 फीसदी ज्यादा तनख्वाह पाते हैं। अर्थशास्त्री जेम्स ऐंड्रिओनी और रागन पेट्री, जिन्होंने यह सर्वेक्षण किया , कहते हैं , ' तनख्वाह मे यह फर्क तब है जबकि वास्तव में बेहतर दिखने वाले कर्मचारी उतना ही काम करते हैं जितना कि उनके दूसरे साथी। '

एक अखबार को दिए इंटरव्यू में इन अर्थशास्त्रियों ने कहा , ' हमने पाया कि बेहतर शक्ल-सूरत को प्रीमियम मिलता है भले ही ऐसे लोग दूसरों जितना या फिर उनसे कम ही काम करते हों। ' आकर्षक लोग अपने से कम आकर्षक लोगों से ज्यादा पैसा कमाते हैं। कम आकर्षक लोग भी बदसूरत लोगों से इस मामले में बेहतर ट्रीटमेंट पाते हैं। '

रिसर्चर्स के मुताबिक इसकी एक वजह यह है कि ऐम्प्लॉयर ' खूबसूरत ' दिखने वाले कर्मचारियों से एक खास तरीके का व्यवहार करने की उम्मीद रखते हैं। स्टडी के अनुसार , ' खूबसूरती का प्रीमियम ऐसे लोगों के असल तौर-तरीकों पर निर्भर नहीं करता है बल्कि इस अपेक्षा पर , कि अच्छे दिखने वाले लोग किस तरह का व्यवहार करेंगे। '

अपनी रिसर्च के दौरान इन अर्थशास्त्रियों ने शारीरिक आकर्षण के लिहाज से बांटे गए 3 समूहों का अध्ययन किया। स्टडी में यह बात सामने आई कि आकर्षक लोगों के समूह में से 38 फीसदी देखने में ज्यादा सहज और मददगार थे , कम आकर्षक लोगों में से 18 फीसदी और बदसूरत लोगों के समूह में सिर्फ 5 फीसदी ही ऐसे दिखाई देते थे। रिसर्चर्स का दावा है कि आकर्षक लोग ज्यादा लोकप्रिय और कामयाब भी होते हैं। नवभारत टाइम्‍स से साभार

September 22, 2007

रेडियो मेरी सांस में बसा है : पियूष मेहता

रेडियो के बेहद पुराने श्रोता पियूष मेहता से रेडियो को लेकर उनके अनुभवों पर चर्चा की कमल शर्मा ने। इस बातचीत को पूरी तरह परोसा पियूष जी ने अपने एक पुराने लेख रेडियो की दुनिया के माध्‍यम से। आप भी लीजिए आनंद कि क्‍या कहते हैं पियूष जी। जो इस समय गुजरात के खूबसूरत शहर सूरत में रहते हैं।


पंडित स्‍व. नरेंद्र शर्मा के निर्देशन में आकाशवाणी की विविध भारती सेवा शुरू हुई थी, जो आज के हिसाब से बहुत कम समयावधि के लिए ही प्रसारण कर रही थी। ज्‍यादा रेडियो मनोरंजन रेडियो सिलोन ही परोसता था। जहां से गोपाल शर्मा (जिनसे मैंने अब तक दो बार मुलाकात की), उन्‍हीं जैसी समान आवाज वाले कुमार कांत, चेतन खेरा कार्यक्रम प्रस्‍तुत करते थे और रेडियो सिलोन के व्‍यापारी प्रतिनिधि के रूप में भारत के मुंबई और चेन्‍नई में रेडियो एडवरटाइजिंग सर्विसेस के बाल गोविंद श्रीवास्‍तव (जिनसे मैंने तीन साल पहले अमीन सायानी के सौजन्‍य से मुंबई में पहली और आखिरी मुलाकात की थी) आवाज की दुनिया के सरताज अमीन सायानी (जिनसे पांच बार मिला हूं), ब्रज भूषण (संगीतकार व गायक भी) जिन्‍हें अमीन सायानी ने इस क्षेत्र में प्रवेश करवाया, अमीन सायानी के बड़े भाई और गुरु स्‍व. हमीद सायानी (अंग्रेजी कार्यक्रमों और विज्ञापन के लिए), नक्‍वी रिजवी श्रीमती कमल बारोट (जो हिंदी व गुजराती फिल्‍मों की पार्श्‍व गायिका भी रही), शिव कुमार, मुरली मनोहर स्‍वरुप संगीतकार वगैरह कार्यरत थे।

रेडियो पाकिस्‍तान भी हर रोज आधे घंटे का हिंदी फिल्‍मों गीतों का कार्यक्रम पेश करता था, जो 1965 में बंद हो गया। साथ में आकाशवाणी अहमदाबाद के गुजराती भाषी प्रवक्‍ता लेम्‍यूल हैरी की आवाज का भी मैं दिवाना था, जो कुछ समय के लिए दिल्‍ली से अखिल भारतीय गुजराती समाचार भी पढ़ते थे। उसके अतिरिक्‍त रजनी शास्‍त्री की आवाज भी सुंदर थी, जो गीतों भरी कहानी गीत गाथा के नाम से पेश करते थे। साथ में आकाशवाणी राजकोट के उदघोषक भरत याज्ञिक भी रविवारीय जय भारती कार्यक्रम से लोगों के चहेते हुए।

रेडियो पर क्रिकेट कामैंट्री में सभी अंग्रेजी भाषा के कामेंट्रटरों में विजय मर्चेंट, डिकी रत्‍नाकार, देवराज पुरी डॉ. नरोत्‍तम पुरी के पिता, कोलकाता से सरदेंदू सन्‍याल, चेन्‍नई से पी. आनंद राव और वीएम चक्रपाणि जो आकाशवाणी के समाचार प्रभाग के अंग्रेजी भाषा के समाचार वाचक भी थे और बाद में रेडियो आस्‍ट्रेलिया मेल्‍बार्न चले गए थे और वहां से हिंदी गानों के 15 मिनट के साप्‍ताहिक कार्यक्रम अंग्रेजी उदघोषणा के साथ गाने पेश करते थे, जो मैंने सुने थे एवं बेरी सबसे अधिक उल्‍लेखनीय है। हिंदी कामेंट्री की शुरूआत काफी सालों के बाद जसदेव सिंह ने की। बाद में सुशील दोशी और रवि चतुर्वेदी भी मुख्‍य थे। आकाशवाणी इंदौर से नरेन्‍द्र पंडित की हर गुरुवार के दिन दोपहर साढ़े बारह बजे पर फिल्‍म संगीत के विशेष साप्‍ताहिक कार्यक्रम की प्रस्‍तुति आज तक मुझे याद है, जो भोपाल से शॉर्ट वेव 41 मीटर बैंड पर सूरत में सुनाई पड़ता था। आकाशवाणी दिल्‍ली-ए पर गुलशन मधुर की आवाज भी याद रही, जो सालों बाद वायस ऑफ अमरीका हिंदी सेवा से सुनने को मिली।

विविध भारती सेवा मुंबई से शॉर्ट वेव के अलावा मीडियम वेव पर भी प्रसारित होती थी, जिसमें 1965 से देश्‍ा के हर भाग में जो स्‍थानीय मीडियम वेव विविध भारती केंद्रों की जो शुरूआत हुई, इस नीति के अंतर्गत 1967 से मुंबई से प्रसारित विविध भारती सेवा के प्रसारण से अलग मीडियम वेव के प्रसारण को विज्ञापन प्रसारण सेवा के अंतर्गत अलग स्‍टूडियो से कार्यरत किया गया, जो पुणे और नागपुर से भी जारी हुआ। केंद्रीय विविध भारती सेवा हर राज्‍य के मुख्‍य विविध भारती केंद्र को करीब दो महीने पहले अपने सभी कार्यक्रमों को स्‍पूल टेप पर ध्‍वनि मु्द्रित करके भेज देता थी। विज्ञापन की बुकिंग हर राज्‍य के मुख्‍य विविध भारती केंद्र पर ही अपने लिए और उस राज्‍य के बाकी सभी विविध भारती केंद्रों के लिए करीब एक साथ प्रसारण सेवा के सभी राज्‍यों के मुख्‍य केंद्रों केंद्रीय विविध भारती सेवा द्धारा भेजे गए कार्यक्रमों को अपने विज्ञापन की बुकिंग के अनुसार संपादित करके हर कार्यक्रमों की सम्‍पादित करके हर कार्यक्रमों की सम्‍पादित टेप्‍स राज्‍य के बाकी विविध भारती के विज्ञापन प्रसारण सेवा के केंद्रों को भेजती थी। यह व्‍यवस्‍था एक लंबे समय के बाद हर सीबीएस केंद्र की स्‍थानीय बुकिंग पर परिवर्तित हुई।

आकाशवाणी की एफएम सेवा भी करीब 26 साल के पहले आरंभ हुई और करीब 16 साल पहले बहुस्‍तरीय हुई, जिसका पहला स्‍तर मेट्रो एम एम स्‍टीरियो था, जिसमें निजी प्रसारकों को समय स्‍लोट बेचे गए। बाद में जिला स्‍तरीय शहरों में स्‍थानीय खडं समयावधि वाले एफ एम मोनो प्रसारण वाले केंद्रों की शुरूआत हुई। जिसके अंतर्गत सूरत में 30 मार्च 1993 के दिन तीन घंटे के स्‍थानीय प्रसारण वाला केंद्र शुरू हुआ, जो मेरी अपनी व्‍याख्‍या अनुसार पूर्व प्राथमिक केंद्र था। बाद में विविध भारती के स्‍थानीय मध्‍यम तरंग केंद्रों को एफएम स्‍टीरियो में परिवर्तित करने की शुरूआत हुई। कुछ बड़े शहरों के स्‍थानीय खंड समय वाले एफएम केंद्रों को विविध भारती के विज्ञापन सेवा केंद्र के रुप में तबदील किया गया, जिसमें सूरत भी अगस्‍त 2002 से पूरे समय वाले विविध भारती के विज्ञापन प्रसारण सेवा के केंद्र में परिवर्तित हुआ, जो बाद में स्‍टीरियो भी हुआ।

इस तरह आज आकाशवाणी के सूरत, कानपुर और चंडीगढ़ तीन केंद्र शायद ऐसे हैं, जहां प्राथमिक चैनल न होते हुए, सिर्फ विविध भारती सेवा ही है। बड़ौदा में विज्ञापन प्रसारण सेवा के अलावा प्राइमरी चैनल के कार्यक्रमों का कुछ निर्माण तो होता है और कुछ कुछ प्रसारण भी होता है। लेकिन अहमदाबाद के जोडि़या केंद्र के रुप में अहमदाबाद के ट्रांसमीटर से ही हे। आज सभी श्रोताओं को जानकारी है कि कुछ सालों से विविध भारती सेवा के कार्यक्रम उपग्रह के द्धारा स्‍थानीय विज्ञापन प्रसारण केंद्रों से एफएम बैंड पर और मुंबई, दिल्‍ली, कोलकाता और चेन्‍नई में मध्‍यम तरंग पर एवं रात्रि 11.10 से सुबह 5.55 तक राष्‍ट्रीय प्रसारण सेवा से मध्‍यम तरंग और डीटीएच पर 24 घंटे सुने जा सकते हैं।

कुछ साल से कुछ विशेष कार्यक्रमों एवं फोन-इन कार्यक्रमों को छोड़कर ज्‍यादातर कार्यक्रमों का जीवंत प्रसारण होता है और किसी व्‍यक्ति विशेष की आकस्मिक मृत्‍यु होने पर जीवंत फोन-इन श्रद्धांजलि कार्यक्रम भी होते हैं। जबकि सम्‍पूर्ण प्री रेकोडेड कार्यक्रमों की व्‍यवस्‍था अंतर्गत ऐसे जीवंत फोन इन श्रद्धांजलि कार्यक्रमों की गुंजाइश ही नहीं थे और सिर्फ पहेली पुण्‍य तिथि पर ही कोई पूर्व प्रसारित जयमाला या एक फनकार कार्यक्रम हो सकते थे। मैं विविध भारती के फोन इन कार्यक्रमों में शामिल होने का करीब शुरु से ही भाग्‍यशाली रहा हूं और साल दो साल के अंतराल बाद जब भी मुंबई आना होता रहा तो विविध भारती सेवा के उदघोषकों और अन्‍य साथियों जैसे पूर्व निदेशक जयंत एरंडिकर, सहायक केंद्र निदेशक महेंद्र मोदी, कमल शर्मा, यूनुस जी, श्रीमती ममता, श्रीमती रेणु बंसल, श्रीमती मोना ठाकुर, अहमदवसी साहब, लोकेन्‍द्र शर्मा, राजेन्‍द्र त्रिपाठी, अशोक सोनावणे, राष्‍ट्रीय प्रसारण सेवा में सक्रिय कमल किशोर, अमरकांत दुबे, नागपुर में कार्यरत अशोक जाम्‍बूलकर सहित अनेक साथियों से मिलना होता है। 1962 से फिल्‍मी धुनों को सुनने का और उनके वादक कलाकार एवं साज को पहचानने का शौक लगा, जिसमें सबसे पहला आकर्षण प्रसिद्ध पियानो एकोर्डियन वादक एनोक डेनियल्‍स के प्रति हुआ, जिनकी धुनों को मैंने हैलो आपके अनुरोध पर कार्यक्रम में किस्‍तों में फरमाइश की थी।

वायस ऑफ अमरीका के दो सजीव कॊल-इन कार्यक्रम हैलो अमरीका और हैला इंडिया में तीन बार मुझे लाइव परिचर्चाओं में श्रोता के तौर पर इन विशेषज्ञों के पैनल से सवाल पूछने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया था। २८ अप्रैल 2007 को विविध भारती के स्वर्ण स्मृति कार्यक्रम में कार्यक्रम की निर्मात्री और प्रस्‍तुतकर्ता श्रीमती कांचन प्रकाश संगीत ने मेरा टेलिफो़निक इंटरव्‍यू प्रस्‍तुत किया था और उसमें मेरे संस्मरणों के साथ मेरी उसी बातचीत के दौरान बजाई माऊथ ओर्गन पर फ़िल्मी धुन का हिस्सा भी प्रस्‍तुत किया था।

पियूष मेहता रेडियो जगत की जानी मानी हस्तियों के साथ-- फोटो के लिए यहां देखें

September 18, 2007

सरकारी गुंडों ने रोका जगदीप दांगी को हिंदी सम्‍मेलन में जाने से

जगदीप दांगी 8वें विश्व हिन्दी सम्मेलन न्यूयार्क अमरीका में 13-15 जुलाई को क्‍यों नहीं भाग ले पाए। पढि़ए यह व्‍यथा जो उन्‍होंने कई लोगों को बताई। इससे साफ पता चलता है कि सरकारी सत्‍ता में बैठे गुंडे कैसे रोकते हैं एक प्रतिभा को। प्रतिभा पलायन के लिए इसी तरह के गुंडे जिम्‍मेदार हैं। है कोई बहरों के देश में सुनने वाला।
दांगी जी के अनुसार : 8वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन न्यूयार्क अमरीका में 13-15 जुलाई को था. इस सम्मेलन में मुझे अमरीका से आमंत्रण पत्र आया था। भारतीय विद्या भवन न्यूयार्क के कार्यकारी निदेशक डाँ. पी जयरामन की तरफ़ से मुझे 15 जून को आमंत्रण पत्र आया था। इस सम्मेलन के लिए मेरा रजिस्ट्रेशन न्यूयार्क में ही हुआ था। मेरा रजिस्ट्रेशन अनूप भार्गव [(Anoop Bhargava) Member - Organizing Committee Vishwa Hindi Sammelan] ने 26 जून को कराया था और रजिस्ट्रेशन के लगभग पांच हजार रुपए शुल्क भी उन्होंने ही जमा किए। मेरा रजिस्ट्रेशन न. 2105 था। न्यूयार्क लाने ले जाने और वहां ठहरने का पूरा खर्च आर.एन. मेहरोत्रा जी कर रहे थे वह मेरे स्पोनसर थे। मेरे पास सम्मेलन में जाने के लिये आमंत्रण पत्र था, और आर.एन. मेहरोत्रा का कर्मण्य तपोभूमि सेवा न्यास ग्वालियर की तरफ़ से स्पोनसर लेटर भी था। मेहरोत्रा कर्मण्य तपोभूमि सेवा न्यास ग्वालियर के अधयक्ष हैं।

इन पत्रों के आधार पर मेरा तत्काल पासपोर्ट बन गया था। लेकिन मैं उस सम्मेलन में जा नहीं सका क्योंकि अमरीकी दूतावास ने मेरा वीजा खारिज कर दिया और उसके खारिज होने का मुझे कोई उपयुक्त कारण भी नहीं बताया। मैंने पूछा तो कहा की आफ़िसर आपसे संतुष्‍ट नहीं है सॉरी..सॉरी... मैं समझ गया की यह सब इसलिए हुआ की मेरे पास आईआईआईटीएम का एनओसी लैटर नहीं था।

आईआईआईटीएम ग्वालियर से मैंने एनओसी पत्र भी मांगा था पर मुझे वह पत्र न तो निदेशक डॉ. ओम विकास ने दिया और न ही रजिस्‍ट्रार डी. कुमार ने दिया और मेरा वीजा आखिर खारिज हो गया। Mrs. Madhu Goswami , Deputy Secretary , Hindi at the Ministry of External Affairs को भी न्यूयार्क से अनूप भार्गव, पी. जयरामन,Reenat Sandhu Consul [Education] CGI, New YorkTel: (212) 774 0627Fax: (212) 879 7914E-mail: edu@indiacgny.org, "Ashok" < ashok@indiacgny.org>, आदि कई लोगों ने श्रीमति Madhu Goswami , Deputy Secretary से मुझे वीजा दिलाने को बार बार कहा। मैं भी उनके आफिस में दो दिन चक्कर लगाता रहा पर उनकी निजी सचिव ने मुझे उनसे मिलने तक नहीं दिया।

मुझे ऐसा आभास हो रहा था की यह लोग जानबूझ कर मुझे अमरीका जाने से रोक रहे थे कोई न कोई तो इसके पीछे था। क्‍योंकि अगर मैं वहां जाता तो यह बात जरूर सामने आती की एक लड़के ने हिंदी के लिए जो काम किया है उसी तरह के काम के लिए भारत सरकार ने लगभग 600 करोड़ रुपए खर्च किए और पब्लिक को हिंदी सॉफ्टवेयर के नाम पर कचरा बांट दिया और जगदीप का काम सरकारी काम से हजार गुना अच्छा था उसे दबा दिया गया। इसे भी देखें अंग्रेजी की मुश्किल से मिली हिंदी को मंजिल...

September 14, 2007

खो गया झुमरी तिलैया का सरगम

अगर आप रेडियो के श्रोता रहे हैं तो फरमाइशी गीतों के कार्यक्रमों में ‘झुमरी तिलैया’ का नाम अवश्‍य सुना होगा। 1950 से 1980 तक रेडियो से प्रसारित होने वाले फिल्‍मी गीतों के फरमाइशी कार्यक्रमों में शायद ही किसी गीत को सुनने के लिए झुमरी तिलैया के श्रोताओं ने फरमाइश न भेजी हो। हाल यह था कि हर किसी गीत के सुनने वाले श्रोताओं में झुमरी तिलैया का नाम कम से कम एक बार तो जरुर प्रसारित किया जाता था। इस तरह झुमरी तिलैया का नाम दिन में बार बार सुनने में आता था जिसके कारण रेडियो श्रोताओं में झुमरी तिलैया का नाम प्रसिद्ध हो गया था।

सही अर्थों में कहा जाए तो झुमरी तिलैया को विश्‍वविख्‍यात बनाने का श्रेय वहां के स्‍थानीय रेडियो श्रोताओं को जाता है जिनमें रामेश्‍वर प्रसाद वर्णवाल, गंगालाल मगधिया, कुलदीप सिंह आकाश, राजेंद्र प्रसाद, जगन्‍नाथ साहू, धर्मेंद्र कुमार जैन, पवन कुमार अग्रवाल, लखन साहू और हरेकृष्‍ण सिंह प्रेमी के नाम मुख्‍य हैं। मुंबई से प्रकाशित धर्मयुग में वर्षों पहले छपे एक लेख में विष्‍णु खरे ने लिखा था कि उदघोषक अमीन सयानी को प्रसिद्ध बनाने में झुमरी तिलैया के रेडियो श्रोताओं में खासतौर पर रामेश्‍वर प्रसाद वर्णवाल का हाथ है।

बिहार में गया रेलवे स्‍टेशन के अगले स्‍टेशन कोडरमा के बाहरी क्षेत्र को झुमरी तिलैया के नाम से जाना जाता है। यह बिहार की राजधानी पटना से 200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जिसकी आबादी एक लाख के करीब होगी। यहां विश्‍वविख्‍यात अभ्रक की खानें हैं और यहां का कलाकंद भी प्रसिद्ध है। वर्णवाल के बारे में लोगों का कहना है कि उनकी पहली फरमाइश रेडियो सिलोन से पढ़ी गई थी। फिल्‍म ‘मुगले आजम’ का गीत ‘जब प्‍यार किया तो डरना क्‍या’ के लिए उन्‍होंने टेलीग्राम से फरमाइश भेजी थी। रेडियो सिलोन से अक्‍सर यह प्रसारण होता था कि आप ही के गीत कार्यक्रम में झुमरी तिलैया से रामेश्‍वर प्रसाद वर्णवाल ने ‘दो हंसों का जोड़ा बिछुड़ गयो रे, गजब भयो रामा जुलुम भयो रे’ फरमाइश की है। झुमरी तिलैया से गंगालाल मगधिया, कुलदीप सिंह ‘आकाश’, राजेंद्र प्रसाद, जगन्‍नाथ साहू, धर्मेंद्र कुमार जैन, पवन कुमार अग्रवाल, लखन साहू ने भी इसी गीत की फरमाइश की है।

रेडियो पर फरमाइश को लेकर कई अजूबे जुड़े हुए हैं। एक बार ऐसा हुआ कि आल इंडिया रेडियो पर गंगा जमुना फिल्‍म का गीत दो हंसो का जोड़ा बिछुड़ गयो रे बज रहा था। गीत समाप्‍त होने पर उदघोषक ने घोषणा की कि अभी अभी झुमरी तिलैया से रामेश्‍वर प्रसाद वर्णवाल का भेजा हुआ टेलीग्राम हमें प्राप्‍त हुआ है, जिसमें उन्‍होंने दो हंसों का जोड़ा सुनाने का अनुरोध किया है। अत: यह गीत हम आपको पुन: सुना रहे हैं। टीवी के व्‍यापक आगमन से पहले रेडियो के अलावा मनोरंजन का दूसरा साधन नहीं था। ग्रामोफोन प्‍लेयर बहुत कम लोगों के पास था।

फरमाइश भेजने वालों में हरेकृष्‍ण सिंह ‘प्रेमी’ कभी पीछे नहीं रहे। यह अलग बात है कि वे अपनी हरकतों व कथित प्रेमी होने के कारण हमेशा चर्चा में रहे। फरमाइशों में अपने नाम के बाद अपनी कथित प्रेमिका प्रिया जैन का नाम भी जोड़ा करते थे जिसके कारण वे प्रसिद्ध हुए। यह बात अलग है कि उनकी प्रिया जैन से शादी नहीं हुई।

एक और दिलचस्‍प बात यह है कि रेडियो पर फरमाइश भेजने वालों में आपसी होड़ इस हद तक बढ़ गई थी कि लोग एक दूसरे की डाक को गायब करवाने और रुकवाने के लिए डाक छांटने वाले कर्मचारियों को रुपए देते थे। तब कई गंभीर श्रोता फरमाइशी पत्रों को भेजने के लिए गया और पटना तक जाने लगे जिससे डाक खर्च भी बढ़ गया। उन दिनों इस तरह के पत्र पर कम से कम 25 से 35 रुपए खर्च होने लगे।

एक और दिलचस्‍प प्रकरण के तहत एक सज्‍जन फरमाइश भेजने वाली लड़की से उसका मनपसंद गीत सुनने के बाद उससे प्रेम करने लगे। वे उसके प्रेम में इस हद तक पागल हो गए कि जिस दिन उस लड़की की शादी हो रही थी वहां जा पहुंचे और हंगामा खड़ा कर दिया कि मैं इस लड़की से शादी करूंगा। खैर लोगों के बहुत समझाने बुझाने और माथापच्‍ची करने के बाद मामला शांत हुआ।
झुमरी तिलैया के संबंध में सबसे ज्‍यादा रोचक बात यह थी कि जिस किसी फिल्‍म के किसी गीत को सुनने के लिए झुमरी तिलैया के श्रोता अपनी फरमाइश भेजते थे उस फिल्‍म को और उस गीत को मुंबई फिल्‍म उद्योग के बॉक्‍स ऑफिस पर हिट माना जाता था। यह सिलसिला कई साल से खत्‍म हो गया है। निजी टीवी चैनलों और दूरदर्शन की मार से रेडियो श्रोता बहुत कम रह गए हैं, साथ ही झुमरी तिलैया का सरगम भी खो गया है। इस सरगम को पढ़ने के बाद विंडो बंद मत किजिए बल्कि दिल से अपनी टिप्‍पणी ब्‍लॉग को भेजिए।

September 7, 2007

कठमुल्‍लाओं का एक और बेवकूफी भरा फतवा

प्रमुख इस्लामिक संस्था दारुल-उलूम देवबंद ने फोटोग्राफी को शरीयत कानूनों के खिलाफ करार देते हुए इस पर पाबंदी लगाने वाला एक फतवा जारी किया है। हालांकि, समझा जाता है कि संस्था ने खुद अपने छात्रों और कर्मचारियों को फोटो पहचान पत्र जारी कर रखे हैं।

दारुल-उलूम के सूत्रों के मुताबिक 4 मौलवियों ने व्यवस्था दी कि फोटो खींचना या खिंचवाना शरीयत के तहत गैरकानूनी है। पाबंदी को कानूनी रूप नहीं दिया जा रहा है तो सिर्फ इसलिए कि आमतौर पर फोटोग्राफी काफी चलन में है। इन मौलवियों में फतवा विभाग के प्रमुख मुफ्ती हबीबुर्रहमान के अलावा मुफ्ती महमूद, मुफ्ती जैनूलइस्लाम, मुफ्ती जैफुरुद्दीन शामिल है। यह फतवा असम के एक सामाजिक संगठन द्वारा फोटोग्राफी को लेकर उठाए गए सवाल के जवाब में आया है।

गौरतलब है कि यह विवादास्पद फतवा ऐसे समय में आया है, जब देश के करीब एक लाख मुसलमान हज यात्रा की तैयारी कर रहे हैं और उनके पास फोटो वाले पासपोर्ट हैं। उल्लेखनीय है कि सऊदी अरब जैसे मुस्लिम देशों ने फोटोग्राफी को इजाजत दे रखी है और उनकी सरकारों ने अपने नागरिकों को फोटो वाले पासपोर्ट और पहचान पत्र जारी कर रखे हैं।

इस बीच, शरीयत अदालत के एक सदस्य और उत्तर प्रदेश इमाम संगठन के अध्यक्ष मुफ्ती जुल्फिकार ने कहा कि फोटोग्राफी के शरीयत कानून के खिलाफ होने के बावजूद इससे बचा नहीं जा सकता, क्योंकि आमतौर पर यह काफी इस्तेमाल किया जाता है। फिर भी, लोगों को आपत्तिजनक तस्वीरों और गैर-जरूरी फोटोग्राफी से खुद को दूर रखना चाहिए। नवभारत टाइम्‍स से साभार

September 6, 2007

कंप्‍यूटर की बोर्ड के सौ शार्ट कट

CTRL+C (Copy)
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SHIFT+DELETE (Delete the selected item permanently without placing the item in the Recycle Bin)
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CTRL+SHIFT while dragging an item (Create a shortcut to the selected item)
F2 key (Rename the selected item)
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CTRL+LEFT ARROW (Move the insertion point to the beginning of the previous word)
CTRL+DOWN ARROW (Move the insertion point to the beginning of the next paragraph)
CTRL+UP ARROW (Move the insertion point to the beginning of the previous paragraph)
CTRL+SHIFT with any of the arrow keys (Highlight a block of text)
SHIFT with any of the arrow keys (Select more than one item in a window or on the desktop, or select text in a document)
CTRL+A (Select all)
F3 key (Search for a file or a folder)
ALT+ENTER (View the properties for the selected item)
ALT+F4 (Close the active item, or quit the active program)
ALT+ENTER (Display the properties of the selected object)
ALT+SPACEBAR (Open the shortcut menu for the active window)
CTRL+F4 (Close the active document in programs that enable you to have multiple documents open simultaneously)
ALT+TAB (Switch between the open items)
ALT+ESC (Cycle through items in the order that they had been opened)
F6 key (Cycle through the screen elements in a window or on the desktop)
F4 key (Display the Address bar list in My Computer or Windows Explorer)
SHIFT+F10 (Display the shortcut menu for the selected item)
ALT+SPACEBAR (Display the System menu for the active window)
CTRL+ESC (Display the Start menu)
ALT+Underlined letter in a menu name (Display the corresponding menu)
Underlined letter in a command name on an open menu (Perform the corresponding command)
F10 key (Activate the menu bar in the active program)
RIGHT ARROW (Open the next menu to the right, or open a submenu)
LEFT ARROW (Open the next menu to the left, or close a submenu)
F5 key (Update the active window)
BACKSPACE (View the folder one level up in My Computer or Windows Explorer)
ESC (Cancel the current task)
SHIFT when you insert a CD-ROM into the CD-ROM drive (Prevent the CD-ROM from automatically playing)
Dialog Box Keyboard Shortcuts
CTRL+TAB (Move forward through the tabs)
CTRL+SHIFT+TAB (Move backward through the tabs)
TAB (Move forward through the options)
SHIFT+TAB (Move backward through the options)
ALT+Underlined letter (Perform the corresponding command or select the corresponding option)
ENTER (Perform the command for the active option or button)
SPACEBAR (Select or clear the check box if the active option is a check box)
Arrow keys (Select a button if the active option is a group of option buttons)
F1 key (Display Help)
F4 key (Display the items in the active list)
BACKSPACE (Open a folder one level up if a folder is selected in the Save As or Open dialog box)
m*cro$oft Natural Keyboard Shortcuts
Windows Logo (Display or hide the Start menu)
Windows Logo+BREAK (Display the System Properties dialog box)
Windows Logo+D (Display the desktop)
Windows Logo+M (Minimize all of the windows)
Windows Logo+SHIFT+M (Restore the minimized windows)
Windows Logo+E (Open My Computer)
Windows Logo+F (Search for a file or a folder)
CTRL+Windows Logo+F (Search for computers)
Windows Logo+F1 (Display Windows Help)
Windows Logo+ L (Lock the keyboard)
Windows Logo+R (Open the Run dialog box)
Windows Logo+U (Open Utility Manager)
Accessibility Keyboard Shortcuts
Right SHIFT for eight seconds (Switch FilterKeys either on or off)
Left ALT+left SHIFT+PRINT SCREEN (Switch High Contrast either on or off)
Left ALT+left SHIFT+NUM LOCK (Switch the MouseKeys either on or off)
SHIFT five times (Switch the StickyKeys either on or off)
NUM LOCK for five seconds (Switch the ToggleKeys either on or off)
Windows Logo +U (Open Utility Manager)
Windows Explorer Keyboard Shortcuts
END (Display the bottom of the active window)
HOME (Display the top of the active window)
NUM LOCK+Asterisk sign (*) (Display all of the subfolders that are under the selected folder)
NUM LOCK+Plus sign (+) (Display the contents of the selected folder)
NUM LOCK+Minus sign (-) (Collapse the selected folder)
LEFT ARROW (Collapse the current selection if it is expanded, or select the parent folder)
RIGHT ARROW (Display the current selection if it is collapsed, or select the first subfolder)
Shortcut Keys for Character Map
After you double-click a character on the grid of characters, you can move through the grid by using the keyboard shortcuts:
RIGHT ARROW (Move to the right or to the beginning of the next line)
LEFT ARROW (Move to the left or to the end of the previous line)
UP ARROW (Move up one row)
DOWN ARROW (Move down one row)
PAGE UP (Move up one screen at a time)
PAGE DOWN (Move down one screen at a time)
HOME (Move to the beginning of the line)
END (Move to the end of the line)
CTRL+HOME (Move to the first character)
CTRL+END (Move to the last character)
SPACEBAR (Switch between Enlarged and Normal mode when a character is selected)
m*cro$oft Management Console (MMC) Main Window Keyboard Shortcuts
CTRL+O (Open a saved console)
CTRL+N (Open a new console)
CTRL+S (Save the open console)
CTRL+M (Add or remove a console item)
CTRL+W (Open a new window)
F5 key (Update the content of all console windows)
ALT+SPACEBAR (Display the MMC window menu)
ALT+F4 (Close the console)
ALT+A (Display the Action menu)
ALT+V (Display the View menu)
ALT+F (Display the File menu)
ALT+O (Display the Favorites menu)
MMC Console Window Keyboard Shortcuts
CTRL+P (Print the current page or active pane)
ALT+Minus sign (-) (Display the window menu for the active console window)
SHIFT+F10 (Display the Action shortcut menu for the selected item)
F1 key (Open the Help topic, if any, for the selected item)
F5 key (Update the content of all console windows)
CTRL+F10 (Maximize the active console window)
CTRL+F5 (Restore the active console window)
ALT+ENTER (Display the Properties dialog box, if any, for the selected item)
F2 key (Rename the selected item)
CTRL+F4 (Close the active console window. When a console has only one console window, this shortcut closes the console)
Remote Desktop Connection Navigation
CTRL+ALT+END (Open the m*cro$oft Windows NT Security dialog box)
ALT+PAGE UP (Switch between programs from left to right)
ALT+PAGE DOWN (Switch between programs from right to left)
ALT+INSERT (Cycle through the programs in most recently used order)
ALT+HOME (Display the Start menu)
CTRL+ALT+BREAK (Switch the client computer between a window and a full screen)
ALT+DELETE (Display the Windows menu)
CTRL+ALT+Minus sign (-) (Place a snapshot of the active window in the client on the Terminal server clipboard and provide the same functionality as pressing PRINT SCREEN on a local computer.)
CTRL+ALT+Plus sign (+) (Place a snapshot of the entire client window area on the Terminal server clipboard and provide the same functionality as pressing ALT+PRINT SCREEN on a local computer.)
m*cro$oft Internet Explorer Navigation CTRL+B (Open the Organize Favorites dialog box)
CTRL+E (Open the Search bar)
CTRL+F (Start the Find utility)
CTRL+H (Open the History bar)
CTRL+I (Open the Favorites bar)
CTRL+L (Open the Open dialog box)
CTRL+N (Start another instance of the browser with the same Web address)
CTRL+O (Open the Open dialog box, the same as CTRL+L)
CTRL+P (Open the Print dialog box)
CTRL+R (Update the current Web page)
CTRL+W (Close the current window)

ब्‍लॉग मचा रहे हैं धूम


जैसे-जैसे इंटरनेट तक ज्यादा से ज्यादा लोगों की पहुंच हो रही है, ब्लॉगिंग की पॉप्युलैरिटी भी बढ़ रही है। ऐसे में ब्लॉग तेजी से एक ऑप्शनल मीडिया का रूप ले रहा है।

इंटरनेट पर लगातार बढ़ रही ब्लॉग्स की तादाद के बारे में आपने सोचा है? ये ब्लॉग तेजी से ट्रडिशनल मीडिया के ऑप्शन के रूप में उभर रहे हैं। ब्लॉग्स की पॉप्युलैरिटी जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उसे देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि भविष्य में ऐसा भी वक्त आएगा, जब लोग देश-दुनिया की खबरें जानने के लिए न तो टीवी से चिपके रहेंगे और न ही सुबह होते ही अखबार का इंतजार करते मिलेंगे। ब्लॉग्स न केवल तेजी से सूचनाएं मुहैया कराने का जरिया बन रहे हैं, बल्कि पल भर में लोगों को किसी मुद्दे पर अपनी राय दुनिया तक पहुंचाने का मंच भी मुहैया करा रहे हैं।

ब्लॉगिंग के मौजूदा ट्रेंड पर नजर डालें, तो पता चलता है कि अभी इस प्रक्रिया में मुख्य रूप से जेन-एक्स ही इन्वॉल्व है। भले ही ब्लॉगर्स में ज्यादा तादाद युवाओं की हो, लेकिन इसमें विषयों की पूरी वैरायटी मिलती है। यानी आपको किसी भी विषय पर ब्लॉग मिल जाएंगे। आप टीनएजर्स के ऐसे कई ब्लॉग्स देख सकते हैं, जहां वे अपनी जिंदगी, नाकामयाब रिश्तों आदि के बारे में बात करते हैं। कई प्रफेसर्स अपने स्टूडेंट्स को पढ़ाई के टिप्स देने के लिए भी ब्लॉग का इस्तेमाल करते हैं। यही नहीं, तमाम सुनी-अनसुनी, कही-अनकही और विश्वसनीय या अविश्वसनीय बातों या मुद्दों से संबंधित ब्लॉग आपको मिल जाएंगे। कुल मिलाकर कहें, तो ब्लॉग्स के दायरे से कोई भी टॉपिक, सब्जेक्ट या इशू अछूता नहीं रह गया है।

इंटरनेट ऐंड मोबाइल असोसिएशन ऑफ इंडिया के असोसिएट वाइस प्रेजिडेंट मेहुल गुप्ता कहते हैं, 'ब्लॉग अल्टरनेटिव मीडिया के रूप में उभर जरूर रहा है, लेकिन अभी यह शुरुआती अवस्था में ही है। हां, यह लोगों की दमदार आवाज के रूप में जरूर सामने आ रहा है।' ब्लॉग अभी भले ही शुरुआती दौर में हो, लेकिन भारत में जिस रफ्तार से इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा है, उसे देखते हुए स्थिति तेजी से बदलने की उम्मीद बंधती है। एक आंकड़े के मुताबिक, दुनिया में कुल इंटरनेट इस्तेमाल का 36 फीसदी एशिया के खाते में है।

एशिया में पिछले कुछ वर्षों के दौरान इंटरनेट के इस्तेमाल में जहां 258 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई, वहीं भारत के मामले में यह आंकड़ा 700 फीसदी रहा। ऐसे में फुल-टाइम ब्लॉगर धीरज सिंह की इस बात में दम लगता है, 'मौजूदा प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बाद तीसरे विकल्प के रूप में ब्लॉग्स तेजी से उभर रहे हैं।' किसी भी तरह की जानकारी के लिए ब्लॉग पर निर्भर रहने वाले, इंजीनियर मुनीर हैदर कहते हैं, 'ब्लॉग्स में ऑप्शनल मीडिया की जगह लेने की ताकत है। जब देश में ज्यादा से ज्यादा लोग इंटरनेट यूज़ करने लगेंगे, तब तो ब्लॉगिंग के विकास की कोई सीमा ही नहीं रह जाएगी। जब तक ऐसा नहीं हो रहा है, तब तक ब्लॉग्स लोगों के लिए अपनी आवाज़ रखने के नए विकल्प के रूप में जगह बना रहे हैं।' नवभारत टाइम्‍स से साभार

August 31, 2007

मुंबई पुलिस सीखाती है कार चोरी करना

मुंबई पुलिस सीखाती है कार चोरी करना.....इस शीर्षक का देखकर चौंके नहीं बल्कि यह सच है। मुंबई पुलिस ने जहां पिछले दिनों कहा था कि वह महानगर में बढ़ती कार चोरी को रोकने के लिए कारगर कदम उठाएगी और जल्‍दी ही कार चोरों के साथ यह जानने का प्रयास करेगी कि वे कार चोरी के लिए कैसे कैसे तरीके अपनाती है ताकि लोगों को बताकर कार चोरी को थामा जा सके। लेकिन मैंने खुद एक नजारा ऐसा देखा कि जहां पुलिस ही कार चोरी का तरीका आम पब्लिक को बता रही थी। बात मेरे कार्यालय के बाहर की है, मेरा कार्यालय मुंबई के उपनगर माटुंगा रोड में न्‍यू एरा हाउस में है। कार्यालय के बाहर मैं लंच के बाद तरोताजा होने के लिए कुछ देर के लिए खड़ा था। तभी वहां मुंबई ट्राफिक पुलिस की टोइंग गाड़ी जिसके सहारे नो पार्किंग जोन में खड़ी गाडि़यों को पुलिस चौकी ले जाया जाता है, आई और एक मारुति वैन को उठाने का प्रयास किया।

मुंबई ट्राफिक पुलिस के कांसटेबल के साथ चार पांच लड़के भी थे, जो इस टोइंग गाड़ी के साथ दुपहिया, चौपहिया उठाने के लिए हमेशा रहते हैं। इस मारुति वैन को वे चाहते थे वैसे ही उठाकर ले जा सकते थे। लेकिन मेरे सहित वहां खड़े तकरीबन 20 व्‍यक्तियों ने देखा कि ट्राफिक कांसटेबल के कहने पर तीन लड़कों ने प्‍लास्टिक की सी पतली पत्‍ती निकाली और ड्राइवर साइड के दोनों विंडों की ओर उन्‍हें घुसेड़कर गाड़ी का लॉक दस सेकंड में खोल दिया। इस लॉक के खुलते ही मारुति वैन के दरवाजे भी खुल गए।

मारुति वैन में एक बैग भी रखा था जिसकी तलाशी उस कांसटेबल ने आगे जाकर ली होगी क्‍योंकि तभी लोग उस कांसटेबल से कहने लगे कि इसमें तो बैग रखा है। सभी यह कह रहे थे कि मारुति वैन को वैसे भी ले जाया जा सकता था तो पत्‍ती के माध्‍यम से लॉक क्‍यों खोला गया। पुलिस वाले के कहने पर जब सब के सामने लॉक खोला गया तो क्‍या इस तकनीक को दूसरों ने नहीं सीख लिया। क्‍या ये लड़के जो इतना कुछ जानते हैं दूसरों को यह तकनीक नहीं सिखाते होंगे। क्‍या ये लड़के राजा हरिशचंद्र के वंशज है जो खुद कभी कार चोरी में शामिल नहीं होंगे पैसे के लालच या किसी मजबूरीवश। इन सभी सवालों सहित अनेक सवालों के जवाब नहीं है हमारे सामने।

August 11, 2007

महिलाओं की संगत से बिगड़ी जेब की रंगत

यह तो सभी चाहते हैं कि उनके आफिस में सुंदर महिलाएं काम करें, लेकिन जिन आफिसों में ऐसा पहले से ही है, जरा वहां के बारे में पता कर लीजिए। दफ्तरों में महिला कर्मचारियों की बढ़ती संख्या का खामियाजा बेचारे पुरुष कर्मियों को भुगतना पड़ रहा है। ऐसा नहीं है कि इसके कारण उनकी नौकरी को कोई खतरा पैदा हो रहा है। दरअसल, इस वजह से उन्हें सज-संवर कर आफिस आना पड़ता है। जाहिर है महंगाई से लड़-झगड़ कर होने वाली बचत सौंदर्य प्रसाधनों पर खर्च हो रहीहै।

पुरुष कर्मियों का खर्च बढ़ाने में कार्पोरेट जगत का सघन प्रचार अभियान भी अहम भूमिका निभा रहा है। इसके चलते वह अपनी साज-सज्जा के प्रति ज्यादा सजग हो गए हैं तथा कास्मेटिक्स, वेशभूषा और मोबाइल फोन के मद में बेतहाशा खर्च कर रहे हैं। इसका खुलासा देश के प्रमुख उद्योग चैंबर एसोचैम द्वारा कराए गए देशव्यापी सर्वेक्षण में हुआ है। इसके अनुसार 58 प्रतिशत युवा एवं मध्य आयु के लोग और उनकी 65 फीसदी संतानें इन वस्तुओं पर प्रत्येक माह 2500 रुपए से भी अधिक खर्च कर रही हैं। वर्ष 2000 में इन मदों में किया जाने वाला खर्च एक हजार रुपए प्रति माह ही था।

सर्वे में शामिल पांच हजार से अधिक उपभोक्ताओं में से 65 फीसदी ने कहा कि पिछले सात वर्षो के दौरान ब्रांडेड कास्मेटिक्स के मद में उनके खर्च 30 फीसदी बढ़े हैं। ऊपरी मध्य आयु (40 से 45 साल) के 57 फीसदी लोगों ने कहा कि पढ़ने और संजने-संवरने के मामले में वे पहले की अपेक्षा 22 फीसदी अधिक खर्च कर रहे हैं। कास्मेटिक्स पर खर्च के मामले में छात्र भी पीछे नहीं हैं। आखिर उनके कालेजों तो लड़कियां भी तो पढ़ती हैं। एसोचैम के मुताबिक 32 फीसदी छात्र इस मद में 700 से 1000 रुपए प्रति माह खर्च करते हैं। सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 61 फीसदी लोगों ने बताया कि वे मोबाइल फोन का सबसे ज्यादा इस्तेमाल कार्यस्थलों पर ही करते हैं।

एसोचैम के अध्यक्ष वेणुगोपाल धूत ने बताया कि रोचक बात यह है कि महिला कर्मियों की तुलना में पुरुष सहकर्मियों में कास्मेटिक्स के प्रति रुझान बढ़ा है। उन्होंने कहा कि पुरुष उपभोक्ता प्रति माह कास्मेटिक्स पर 300 से लेकर 500 रुपए खर्च करते हैं और ब्रांड वगैरह के बारे में खुद निर्णय लेते हैं। इनमें से 85 प्रतिशत गुणवत्ता को विशेष तवज्जो देते हैं। दूसरी ओर 75 प्रतिशत महिलाएं ब्रांड का चुनाव खुद करती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक 75 फीसदी पुरुष उपभोक्ता बार-बार अपना मोबाइल हैंडसेट बदलते रहते हैं और इस मद में उनके खर्च महिला सहकर्मियों की तुलना में ज्यादा हैं। जागरण डॉट कॉम से साभार

June 15, 2007

वेब पत्रकारिता का बढ़ता मायाजाल


राष्‍ट्रीय पाठक सर्वे 2002 में यह पाया गया था कि भारत में आम आदमी एक अखबार को पढ़ने के लिए मुश्किल से 32 मिनट खर्च करता है, जबकि टेलीविजन देखने के लिए सौ मिनट। युवा पीढ़ी की बात की जाए तो वे अखबार पढ़ने के लिए बेहद कम समय खर्च करते हैं, जबकि टेलीविजन देखने और इंटरनेट सर्फिंग के साथ अधिक समय बिताना पसंद करते हैं। असल में यह स्थिति भारत की नहीं, विदेशों की भी यही है। कंप्‍यूटरों की बढ़ती संख्‍या और ब्राड बैंड के फैलाव से युवा पीढ़ी तो अब टेलीविजन के बजाय इंटरनेट पर अपने दूसरे कार्य मसलन कोई खोज, ईमेल, चैट, पढ़ाई करते हुए समाचारों, विचारों और सूचनाओं के लिए अपने को अपडेट रखने के लिए वेबसाइटों पर ही जाना पसंद करती है।

इंटरनेट के फैलाव के शुरूआती दौर में प्रिंट, ब्राडकॉस्‍ट और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम के बाद आई वेब पत्रकारिता के भविष्‍य पर ज्‍यादातर विश्‍लेषकों ने जल्‍दबाजी में टिप्‍पणी की थी कि यह लंबे समय तक नहीं टिक पाएगी लेकिन पिछले दस साल से इसका भारत में मायाजाल बढ़ता जा रहा है। हालांकि, वेब पत्रकारिता के शुरूआती समय में इतने उतार चढ़ाव आए कि इसकी स्थिति डांवाडोल होती दिखी, लेकिन एक बात स्‍वीकार करनी होगी कि दस साल तकनीक आधारित किसी नई चीज के लिए पर्याप्‍त नहीं होते। प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन न्‍यूज चैनलों को आज कई साल हो गए, इसलिए ये हमें जमे जमाए लगते हैं, जबकि वेब पत्रकारिता तो अभी शिशु ही है और इसे युवा बनने में समय लगेगा। लेकिन यहां मैं एक बात साफ कर दूं कि वेब समाचार देखने वाले समाचार पत्र पढ़ने वालों की तुलना में अधिक समृद्ध, अधिक अनुभवी और बेहतर शिक्षित एवं जवान हैं।

समूची दुनिया में इंटरनेट उपभोक्‍ताओं की साल दर साल बढ़ती संख्‍या से वेब के माध्‍यम से समाचार और सूचनाएं जानने वालों की संख्‍या और उनके ट्रैफिक में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। वेबसाइटों में समाचार देखने के अलावा ऑडियो और विजुअल का भी बेहतर उपयोग किया जा रहा है, जो रेडियो और टेलीविजन की कमी को भी दूर करता है। एक माध्‍यम में तीनों माध्‍यम प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन का आनंद लिया जा सकता है।

भारत में वेब पत्रकारिता के इतिहास की बात करें तो यह लगभग दस वर्ष पुरानी है। देश में सबसे पहले चेन्‍नई स्थित हिंदू अखबार अपना पहला इंटरनेट संस्‍करण जारी करने वाला समाचार पत्र बना। हिंदू का इंटरनेट संस्‍करण 1995 में आया था। इसके बाद 1998 तक तकरीबन 48 समाचार पत्रों ने अपने इंटरनेट संस्‍करण लांच किए, लेकिन मौजूदा समय में देखें तो लगभग सभी मुख्‍य समाचार पत्रों, समाचार पत्रिकाओं और टेलीविजन चैनलों के नेट संस्‍करण मौजूद हैं। हालांकि, समाचार पत्र और पत्रिकाएं ऑन लाइन न्‍यूज डिलीवरी के खेल में पूरी तरह नहीं छा पाए हैं। बल्कि इन्हें न्‍यूज पोर्टल, न्‍यूज कॉनग्रेटर्स और इंटरनेट कंपनियां जैसे कि एमएसएन, याहू और गुगल का साथ लेना पड़ा है।

वेब पत्रकारिता में इस समय हम बात करें तो जिन अखबारों की वेबसाइट हैं वे ज्‍यादातर वही सामग्री उपयोग में ले रही हैं जो उनके समाचार पत्र में छपता है। चौबीस घंटे समाचारों, विचारों और सूचनाओं को अपडेट करने वालों की संख्‍या काफी कम है और जो अखबार दिन में अपडेशन करते हैं, उनमें समाचारों की संख्‍या कम होती है। या फिर इनमें विशेष स्‍टोरी के बजाय समाचार एजेंसियों से मिले समाचार होते हैं। अधिकतर अखबारों की वेबसाइटों में शायद इस डर से खास समाचारा नहीं डाले जाते होंगे कि कहीं उनके प्रतिस्‍पर्धी समाचार पत्रों के हाथ बेहतर स्‍टोरी न लग जाए या वे भी उन्‍हीं समाचारों को नए रंग रुप में विकसित न कर लें। ये समाचार पत्र मुशिकल से ही अपने इंटरनेट संस्‍करण्‍ा के लिए कुछ नए समाचार, फीचर और फोटोग्राफ तैयार करते हैं। अनेक वेबसाइटों में समाचार, फीचर और सूचनाएं नियमित रुप से अपडेट नहीं होती या काफी देर से होती है। औसत तौर पर देखें तो भी तकरीबन 60 फीसदी सामग्री वेब संस्‍करण में प्रिंट से उठाया हुआ ही होता है। लेकिन कुछ अखबारों ने अब इस निर्भरता को तोड़ने का कार्य शुरू कर दिया है और वेबसाइट एवं प्रिंट संस्‍करण के लिए अलग अलग तरीके से समाचार, फीचर और सूचनाएं तैयार कर रहे हैं। इसकी अगुआई टाइम्‍स ऑफ इंडिया ने की। वेब पत्रकारिता में अब ई पेपर का आगमन हुआ है और यह एक प्रकाशन के वेब संस्‍करण से पूरी तरह अलग है। ई पेपर एक प्रिंट संस्‍करण जैसा ही दिखता है।

अखबारों के वेब संस्‍करण के संपादकीय विभाग की बात करें तो इंटरनेट संस्‍करण में जब ज्‍यादातर सामग्री प्रिंट से ले ली जाती है तो वहां स्‍टॉफ काफी कम रहता है। लेकिन कुछ मुख्‍यधारओं के समाचार पत्रों मसलन टाइम्‍स ऑफ इंडिया ने अपने ऑनलाइन पेपर की अलग अवधारणा की और उसे प्रिंट संस्‍करण से अलग रखा। इसी तरह हिंदी में वेब दुनिया, प्रभासाक्षी, बीबीसी हिंदी वेबसाइट इसके बेहतर उदाहरण हैं जिनका प्रिंट संस्‍करण से लेना देना नहीं है। जागरण अखबार भी अब याहू के साथ नया पोर्टल लांच करने की तैयारी कर रहा है जो उसके प्रिंट संस्‍करण से अलग होगा। हिंदी में जागरण, प्रभासाक्षी, वेब दुनिया और बीबीसी हिंदी का बोलबाला है। हालांकि, अब समाचार, फीचर अपडेशन में कुछ और वेबसाइट आ रही हैं जो स्‍वतंत्र रुप से वेब आधारित हैं और इनमें स्‍टॉफ भी पर्याप्‍त रखा जा रहा है। समाचार पत्रों में अपने इंटरनेट संस्‍करण के लिए दो या चार लोगों की ही टीम रखी जाती है जो इस नई पत्रकारिता के लिए उचित नहीं है। लेकिन जो संस्‍‍थान पूरी तरह वेब पत्रकारिता में ही हैं, उन्‍होंने कई जगह अपने संवाददाता रखे हैं और बेहतर लेखकों की सेवाएं ले रहे हैं, हालांकि जिस तरह वेब पत्रकारिता का विस्‍तार हो रहा है, उस अनुरुप नए रोजगार के अवसर खड़े नहीं हुए हैं जिसके लिए अभी भी कुछ साल इंतजार करना पड़ेगा।

वेब पत्रकारिता ने पत्रकारिता में बड़ा परिवर्तन किया है। नई तकनीक के आने से वेब पत्रकारिता ने तत्‍काल की एक संस्‍कृति को जन्‍म दिया है। यह एक न्‍यूज एजेंसी या चौबीस घंटे टीवी चैनल जैसी है। तकनीक में हो रहे परिवर्तन ने वेब पत्रकारिता को जोरदार गति दी है। एक वेब पत्रकार जब चाहे वेबसाइट को अपडेट कर सकता है। यहां एक व्‍यक्ति भी सारा काम कर सकता है। प्रिंट में अखबार चौबीस घंटे में एक बार प्रकाशित होगा और टीवी में न्‍यूज का एक रोल चलता रहता है जो अधिकतर रिकॉर्ड होता है जबकि वेब में आप हर सैंकेड नई और ताजा समाचार और सूचनाएं दे सकते हैं जो दूसरे किसी भी माध्‍यम में संभव नहीं है।

मुझे कुछ समाचार बेवसाइटों में मुलाकात करने का मौका मिला है और मैंने वहां देखा कि एक या दो लोग पूरी वेबसाइट चला रहे हैं। इनमें वे लोग जुड़े हुए हैं जो वेब पत्रकारिता में पूरी तरह रम गए हैं और खोज खोजकर समाचारों और फीचरों को अपडेट कर रहे हैं। संपादकीय विभाग के विज्ञापन और मार्केटिंग विभाग में भी लोगों को रोजगार मिल रहा है लेकिन इनमें भी मौजूदा अखबार वाले उसी स्टॉफ का सहारा ले रहे हैं जो उनके अखबारों के लिए विज्ञापन बटोरने या मार्केटिंग का कार्य कर रहे है। लेकिन वेब पूरी तरह अलग तरह का उद्यम मानकर नियुक्तियां करनी होगी तभी इनके विस्‍तार और आय में इजाफा होगा। इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर और मानव संसाधन पर बड़ा निवेश करे बगैर इंटरनेट संस्‍करण तैयार किए जा रहे हैं। इसकी एक मुख्‍य वजह इन संस्‍करणों के लाभ में न चलना है लेकिन अब चीजें बदल रही हैं। और कुछ दूसरे उत्‍पादों, सेवाओं और दूसरी वेबसाइटों के साथ गठबंधन कर आय को बढ़ाया जा रहा है, जिससे लाभ मिलने लगा है।

वेब पत्रकारिता का स्‍वाद और संस्‍कृति प्रिंट पत्रकारिता से अलग ढंग का है। एक वेबसाइट में स्‍थानिक और लौकिक प्रतिरोधक कम होते हैं और ताजा व पुरानी सूचनाएं एक साथ ढूंढी जा सकती है। यानी ऐसी सूचनाएं एक साथ आर्काइवि में मिल सकती है। सूचनाओं को जुटाना, उन्‍हें तैयार करना और प्रसार करना नेट पर ज्‍यादा सरल है। एक न्‍यूज वेबसाइट चलाना एक समाचार पत्र को प्रकाशित करने या एक टीवी चैनल चलाने से ज्‍यादा सस्‍ता और सरल है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के आंकडों पर भरोसा करें तो तो वर्ष 2006 में 390 लाख इंटरनेट उपभोक्‍ता थे जिनकी संख्‍या वर्ष 2007 में बढ़कर एक हजार लाख होने की उम्‍मीद है। साथ ही नेट कनेकटिवीटी में हो रहे सुधार से वेब पत्रकारिता का भविष्‍य बेहतर बनता जा रहा है। यदि हम खोजी पत्रकारिता की भी बात करें तो वेब पत्रकारिता का भी इसमें अच्‍छा योगदान रहा है और किया भी जा रहा है। इसके बेहतर उदारहण तहलका डॉट कॉम और कोबरा डॉट कॉम रहे हैं। कुछ समाचार वेबसाइटों ने अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए दूसरे स्‍थापित मीडिया संगठनों के साथ गठबंधन किया है। केंद्र सरकार और विभिन्‍न राज्‍य सरकारों के सभी विभागों ने भी सूचनाएं देने के लिए वेबसाइटों का सहारा लिया है हालांकि अनेक सरकारी वेबसाइटों में सूचनाएं समय पर अपडेशन नहीं होती और इनका रखरखाव भी ठीक ढंग से नहीं होता लेकिन पत्रकारों द्धारा सरकार से सूचनाएं नेट के माध्‍यम से जिस तरह मांगी जा रही है उसमें इन सरकारी वेबसाइटों पर अपने कामकाज को सही तरीके से करने का दबाव बढ़ता जा रहा है जो बेहतर है।

वेब पत्रकारिता का एक रुप सिटीजन पत्रकारिता भी है। वेब पत्रकारिता आम आदमी को सूचनाएं, समाचार और अपने विचार दुनिया के सामने रखने का अवसर देती है। कोई भी व्‍यक्ति अपनी वेबसाइट और अब तो ब्‍लॉग बनाकर अपने पास आने वाली सूचनाओं, समाचारों और विचारों को सभी के सामने रख सकता है और यही सिटीजन पत्रकारिता कहलाती है। इस तरह की पत्रकारिता में आप और आपके पाठकों के बीच कोई नहीं होता। सिटीजन पत्रकारिता के तहत समाचार वेबसाइटें आम लोगों से भी समाचार और विचार मंगा सकती हैं। अनेक ई ग्रुप भी समाचारों और विचारों को अपने समूह में लेनदेन करते हैं।

देश में तेजी से बढ़ रहा कंप्‍यूटरीकरण और ब्राड बैंड सेवा वेब पत्रकारिता के विस्‍तार को बढ़ा रहा है। अब इसमें एक और परिवर्तन देखने को मिला है और वह है मोबाइल सेवाओं का विस्‍तार। डेस्‍क टॉप या लैपटॉप न होने की दिशा में मोबाइल पर वेबसाइट खोलकर समाचारों और सूचनाओं को जाना जा सकता है। हालांकि, देश में बिजली की कमी, कंप्‍यूटर की लागत और ब्राड बैंड सेवा/इंटरनेट उपयोग का महंगा शुल्‍क वेब के विस्‍तार में मुख्‍य अड़चन है, लेकिन देश को आर्थिक महासत्‍ता बनाने के लिए बुनियादी सुविधाओं जिसमें बिजली भी शामिल है, को तेजी से बढ़ाया जा रहा है। उम्‍मीद की जा सकती है कि आने वाले कुछ वर्षों में बिजली की कमी पूरी तरह दूर हो जाएगी। साथ ही ब्राड बैंड सेवा अपने विस्‍तार के साथ सस्‍ती होती जाएगी। इसी तरह कंप्‍यूटरों की लागत को भी पिछले कुछ वर्षों में वाकई कम किया गया है और आज एक लैपटॉप, डेस्‍कटॉप से सस्‍ता हो गया है। लेकिन अभी इसके दाम और नीचे लाने की जरुरत है जिसके प्रयास चल रहे हैं। इन तीन पहलूओं पर यदि तेजी से काम होता है तो समाचार और सूचनाओं का अगला सबसे ताकतवर माध्‍यम वेब पत्रकारिता ही होगा, इसमें अचरज नहीं है। प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम की तुलना में वेब पत्रकारिता बाल्‍यवस्‍था से गुजर रही है, इसे युवा बनने दीजिए फिर यह भी तेजी से दौड़ेगी। आइए स्‍वागत करें वेब पत्रकारिता का।

मीडिया विमर्श का पूरा अंक पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए : http://www.mediavimarsh.com/

May 20, 2007

विश्‍व युद्ध हिंदी ब्‍लॉगरों का

टेलीविजन चैनलों पर आजकल दो कार्यक्रम आ रहे हैं संगीत का प्रथम विश्‍वयद्ध और दूसरा है वॉयस ऑफ इंडिया...दोनों कार्यक्रमों में जमकर संगीत के नए खिलाडि़यों की परीक्षा ली जा रही है और उन्‍हें फिल्‍मो में गाने का मौका दिया जाएगा यदि अंतिम परीक्षा पास कर जाते हैं तो। हम भी चाहते हैं कि कुछ ऐसी ही प्रतियोगिता हिंदी ब्‍लॉगरों के बीच होनी चाहिए जो अलग अलग विषयों पर बेहतर लिखते हों। इनका चयन हिंदी के उम्‍दा लेखकों द्धारा होना चाहिए। सभी ब्‍लॉगर मित्र इस बहस को आगे बढ़ाए कि कैसे यह कार्य हो। चुने गए ब्‍लॉगरों को एक ऐसी वेबसाइट पर साल भर लिखने का मौका मिले, जो हर साल चुने गए बेहतर ब्‍लॉगरों के लिए ही बनी हो। हालांकि यह काम नारद पर बढि़या तरीके से हो सकता है जिसमें बेहतर ब्‍लॉगरों के लेखन के लिए कोई अलग से जगह तय कर दी जाए कि वहां केवल उन्‍हीं की पोस्‍ट होगी। इस कार्यक्रम की कसरत के लिए प्रायोजक से लेकर व्‍यक्तिगत धन योगदान देने वालों की खोज की जा सकती है और यह कठिन कार्य नहीं है। व्‍यक्तिगत योगदान मेरा भी होगा...यह तय है। भाई संजय बेंगानी जी, शशि जी, जीतू जी, मिर्ची सेठ जी, समीर जी उड़न तश्‍तरी, रवि रतलामी जी, फुरसतिया जी, सृजनशिल्‍पी जी, अमिताभ जी, रवीश जी, धुरविरोधी जी, भाटिया जी, ज्ञानदत्‍त पांडेय जी सहित सभी दिग्‍गज जिनके नाम मैं नहीं जानता हूं या इस सूची में छूट गए हैं, वे भी अपने को इस सूची में शामिल कर लें, नाराज न हो.....आप इस बारे में विचार करें और शुरु करे प्रथम विश्‍व युद्ध हिंदी ब्‍लॉगरों का। इस विश्‍व युद्ध में नारद की पूरी टीम के अलावा गुगल, याहू और एमएसएन जैसे सर्च इंजनों में बैठे हिंदी प्रेमियों को भी आमंत्रित किया जाए और जमाया जाए रंग।

May 13, 2007

धंधा खोलो धर्म का


संत आसाराम बापू ट्रस्‍ट का एक मामला हाल में ‘इंडिया टीवी’ पर दिखाया गया जिसमें बताया कि कैसे-कैसे इस संत ने कई जगह करोड़ों रुपए की जमीन फोकट में हड़प ली है और खुद भू माफिया बन गए हैं। मुझे भी कई पत्रकार और गैर पत्रकार मित्रों के फोन आए कि यार इस कलम खिसाई से तो अच्‍छा है संत बन जाएं और मौज करें। मेरा कहना है कि संत क्‍यों बनें, क्‍यों नहीं एक धार्मिक चैनल ही मिलकर खोल लें और ढ़ेर सारा रुपया बनाएं। ‘सहारा समय’ हिंदी साप्‍ताहि‍क में 17 जनवरी 2004 को मेरा एक लेख इसी मसले पर छपा था जिसे जस का तस ब्‍लॉग पर दे रहा हूं।

लेख का शीर्षक था ‘चैनलों की चांदी...’ आप भी पढि़ए...पिछले तीन साल में भारत में धार्मिक चैनल के दर्शकों की संख्‍या में अच्‍छा खासा इजाफा हुआ है। इसे देखते हुए पांच और नए धार्मिक चैनलों के आने की तैयारी हो रही है। धार्मिक चैनलों पर अलग अलग संतों के प्रवचनों का खूब प्रसारण होता है जिनमें मुख्‍य रुप से यह बात होती है कि भगवान कौन है और पैसा मिट्टी है। प्रवचनों का सार यह होता है कि सब कुछ गुरु के चरणों में समर्पित कर दो।

संतों के सेवक अपने गुरु के ऑडियो-वीडियो टेप तैयार करते हैं और टीवी चैनलों से सौदा तय करते हैं। इसी तरह अलग अलग शहरों में प्रवचनों के आयोजक रहते हैं जो इन गुरुओं के प्रवचन धार्मिक टीवी चैनलों पर प्रसारित कराकर धन लेते हैं। ये प्रवचन पहले से रिकॉर्ड किए हुए भी हो सकते हैं और कई बार इनका सीधा प्रसारण भी कराया जाता है। इन प्रसारणों का लाभ यह होता है कि प्रवचन सुनने वाले भारी संख्‍या में आते हैं और पंडाल हमेशा भरे रहते हैं। आसाराम बापू अपने प्रवचनों का आयोजन खुद करते हैं। अब अन्‍य गुरु भी उनकी राह पर हैं। बड़े संतों के प्रवचन के कार्यक्रम तीन-तीन साल तक के लिए तय रहते हैं। आसाराम बापू के आश्रम की निगरानी रखने वाले अजय शाह बताते हैं कि सत्‍तर के दशक में आसाराम बापू को केवल गुजरात, मध्‍य प्रदेश और उत्‍तर प्रदेश के कुछ हिस्‍सों में ही जाना जाता था लेकिन 1992 में उन्‍हें अपने प्रवचनों के प्रसारण के लिए सोनी एंटरटेनमेंट टेलीविजन पर सुबह का समय मिला और उनका नाम घर-घर जाना जाने लगा।

नब्‍बे के दशक में सोनी और जी टीवी ने सुबह के समय प्रवचन का प्रसारण शुरू किया और इससे ही धर्म के धंधे में मौजूदा बदलाव आया। लेकिन इस सारे कारोबार को व्‍यवस्थित तौर पर तीन साल पहले आए ‘आस्‍था’ चैनल ने आगे बढ़ाया। देश का यह पहला चैनल है जो धार्मिक प्रवृति वाले लोगों के लिए था। इसके बाद ‘संस्‍कार’ चैनल आया और पिछले साल तीसरा ‘साधना’ चैनल आया। अब ‘जागरण’, ‘शक्ति’, ‘अहिंसा’, ‘संस्‍कृति’ और ‘सुदर्शन’ नाम के चैनल आने की तैयारी कर रहे हैं। इन चैनलों ने नए गुरुओं की कमाई की राह को आसान बनाया है। ‘साधना’ के राकेश गुप्‍ता कहते हैं कि ‘टीवी के आने से गुरुओं को अपनी इमेज खड़ी करने में बड़ी मदद मिली है। अब लोग उन्‍हें खूब जानने लगे हैं और प्रवचन आयोजक भी ज्‍यादा पैसे देने को तैयार हैं।‘

हालांकि कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि वे धर्म का धंधा कर रहे हैं और माया कमा रहे हैं। ‘आस्‍था’ के मार्केटिंग प्रमुख कमल भक्‍तानी और ‘संस्‍कार’ के दिनेश काबरा धन की बात से इनकार करते हैं। राकेश गुप्‍ता कहते हैं कि उन्‍होंने टीवी चैनल इसलिए किए कि दूसरे दो चैनलों का व्‍यापारीकरण हो चुका था और वे एयर टाइम के लिए धन ले रहे थे। वे कहते हैं, कि ‘केवल हमारा चैनल ही नॉन प्राफिट संगठन है।‘

धार्मिक टीवी चैनलों पर प्राइम टाइम सुबह सात से नौ बजे तक का होता है और इस दौरान बीस मिनट के प्रवचन के लिए ‘आस्‍था’ और ‘संस्‍कार’ चैनल छह से दस हजार रुपए लेते हैं। नॉन प्राइम टाइम में यह दर लगभग तीन से साढ़े तीन हजार रुपए रहती है। सप्‍ताहांत में दर्शकों की संख्‍या बढ़ जाने से दरें भी बढ़ जाती है और 20 मिनट के लिए 12 हजार से 15 हजार रुपए लिए जाते हैं। ‘साधना’ की दरें कम हैं।

ईसाई मत का प्रसार करने करने वाले चैनल ‘गॉड टीवी’ और ‘जीवन’ हिंदू धार्मिक चैनलों की तरह ही काम कर रहे हैं। ‘गॉड टीवी’ को ब्रिटेन स्थित एंगल फाउंडेशन चलाता है। इस चैनल की आय में 40 फीसदी हिस्‍सेदारी विभिन्‍न चर्चों के कार्यक्रम प्रसारण की है जबकि शेष दान से आती है। दूसरे चैनल ‘जीवन’ को भारत के कैथोलिक चर्च ने प्रमोट किया है जिसका दावा है कि वह नैतिक मूल्‍यों के महत्‍व को समझाते हुए पारिवारिक कार्यक्रम प्रसारित करता है।

धार्मिक चैनलों के लिए प्रवचन और भजनों का प्रसारण मुनाफे का कारोबार है। ‘आस्‍था’ की शुरूआत तीन करोड़ रुपए के मामूली निवेश से हुई थी। प्रसारण उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि ऐसे चैनल लांच करना काफी आसान है और दस करोड़ रुपए के बजट में इसकी शुरूआत की जा सकती है। इन चैनलों को चलाने की लागत भी काफी कम बैठती है। ‘आस्‍था’ हर महीने सैटेलाइट के किराए के रुप में छह से सात लाख रुपए अदा करता है। सिंगापुर में ट्रांसमिशन स्‍टेशन चलाने के लिए पांच से छह लाख रुपए देने होते हैं। कर्मचारियों, कार्यालय और स्‍टूडियो पर 15/20 लाख रुपए की लागत बैठती है। इस तरह एक महीने में चैनल का खर्च 30/35 लाख रुपए आता है। इस खर्च के मुकाबले यह चैनल केवल गुरुओं के सहारे हर महीने 50 लाख रुपए कमा लेता है। चैनल की आय में गुरुओं का योगदान 60/70 फीसदी रहता है। विज्ञापन से केवल 20 फीसदी आय होती है। शेष आमदनी भजन एलबम आदि को प्रमोट करने, धार्मिक गतिविधियों को कवर करने और धार्मिक ट्रस्‍टों के प्रोफाइलिंग कारोबार से आती है।

धार्मिक टीवी चैनलों में आम नियम यह है कि छोटे गुरु को बड़े गुरु से ज्‍यादा पैसा अदा करना होता है। यह नियम लिखित नहीं है। इसका गणित इस पर निर्भर है कि छोटे गुरु के प्रवचनों में कितना दम है। अगर वह चैनल के प्रबंधन को जानता हो तो उसे कम पैसा देना पड़ता है। ‘आस्‍था’ चैनल के बीस मिनट के स्‍लॉट में गुरु को तीन मिनट अतिरिक्‍त मिलते हैं। गुरु चाहे तो इस समय को बेचकर विज्ञापनकर्ता से पैसा ले सकता है या फिर अपने उत्‍पादों को प्रमोट करने के लिए इसका उपयोग कर सकता है। मार्केटिंग के जानकार बताते हैं कि गुरुओं ने अपने प्रवचन के प्रायोजक ढूंढकर आय का नया स्‍त्रोत विकसित कर लिया है। ज्‍यादातर गुरु तीनों धार्मिक चैनलों पर आते हैं। लेकिन वे इस बात का खास ख्‍याल रखते हैं कि दो चैनलों पर एक साथ उनका कोई प्रवचन या कार्यक्रम प्रसारित न हो। लाइव प्रसारण के समय उनके सेवक प्रवचनों की रिकॉर्डिंग करते हैं और 20/20 मिनट के कैसेट खुद संपादित कर टीवी चैनलों को सौंपते हैं।

May 11, 2007

सुविधाभोगी संपादकों ने किया है पत्रकारिता का बेड़ा गर्क

शक्तिमान राम को कुशलता के साथ केंवट ने जिस तरह नदी के पार उतारा, वहीं भूमिका मीडिया में एक संपादक की होती है। यहां शक्तिमान समाज है और उसके लिए केवट की भूमिका संपादक को निभानी होती है। लेकिन अब बदले माहौल में संपादकों ने केंवट की भूमिका छोड़ दी है और समाज की बजाय मीडिया मालिकों के हितों के लिए ज्यादा काम कर रहे हैं। पढि़ए मेरा यह पूरा लेख मीडिया विमर्श पत्रिका के इस लिंक पर http://www.mediavimarsh.com/march-may07/kamalsharma.march-may07.htm

May 4, 2007

बंद करो हिंदू, मुस्लिम की लड़ाई ब्‍लॉग वालों

मुंबई की लोकल ट्रेन में एक दिन मैं हमेशा की तरह जा रहा था कि दो लोगों में जगह को लेकर लड़ाई छिड़ गई। इस लड़ाई ने उन दोनों सज्‍जनों या कह लें दुर्जनों ने आदर के साथ भारतीय लहजे में एक दूजे की मां और बहिन तक को याद कर लिया। लड़ाई के हो हल्‍ले से तंग कुछ लोगों ने उन्‍हें चुप रहने को कहा। इसी बीच मेरे पास खड़े एक सज्‍जन जो उस समय भगवान गणेश के भजन गा रहे थे, ने कहा कि क्‍यों लड़ते हो पढ़े लिखे होकर...अरे देखो देश तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहा है, शेयर बाजार खूब बढ़ रहा है....भारतीय कंपनियां विदेशों में एक के बाद एक कंपनियां खरीदती जा रही है। कुछ सोचो अपने विकास के बारे में...मूर्खों की तरह मत लड़ो। देखो..फलां फलां कंपनियों के शेयरों के दाम इतने दिन में दुगुने हो गए। खैर! अब मैं भी पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूं कि हिंदी के ब्‍लॉग लेखक हिंदू, मुस्लिम और ईसाई की लड़ाइयां लड़ रहे हैं। कोई कह रहा है कि फलां ब्‍लॉग वाला मुस्लिमों के लिए लिख रहा है और हिंदू के खिलाफ जहर उगल रहा है। कोई ब्‍लॉग कह रहा है कि हिंदू अच्‍छे हैं और मुस्लिम लड़ाकू। पता नहीं क्‍या क्‍या लिखा जा रहा है जिसका मैं यहां जिक्र नहीं करना चाहता। सभी हिंदी ब्‍लॉग लेखक और पाठक सारी बातें जानते हैं। यह अच्‍छा नहीं हैं कि हम एक दूसरे पर आरोप प्रत्‍यारोप लगाएं और लड़े। लड़ना है तो देश के आर्थिक विकास के लिए लड़ो....समाज की बेहतरी के लिए लड़ो...बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं और शिक्षा के लिए लड़ो। हर जगह सड़क, पानी और बिजली हो, इसके लिए दंगा मचाओ। हमारा देश जब आर्थिक प्रगति की ओर तेजी से बढ़ रहा है तब हमें जाति, धर्म और संप्रदाय के विवाद खड़े करना शोभा नहीं देता। साफ शब्‍दों में कहूं तो बंद करो यह बकवास और बात करो भारत को आर्थिक और राजनीतिक महासत्‍ता बनाने की। देश का हर राज्‍य, हर शहर, हर कस्‍बा और हर गांव कैसे आर्थिक प्रगति में भागीदार बने, इस पर कार्य करो। थाईलैंड के निर्वासित जीवन जी रहे प्रधानमंत्री सिनेवात्रा ने एक बेहतर कार्य किया था वहां एक गांव और एक उत्‍पाद की योजना लागू की जिससे लोगों की माली हालत में सुधार आया। क्‍यों नहीं हम भी एक गांव एक उत्‍पाद जैसी योजनाओं को अपनाकर भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को गति दें। यह मैं मानता हूं कि आपको अपने ब्‍लॉग पर कुछ भी लिखने का अधिकार है लेकिन एक बात बता दूं कि राष्‍ट्र और समाज के विकास के लिए, उसके हित में जो होता है वही लंबे समय चलता है, बकवासबाजी नहीं। जो इससे सहमत नहीं हैं वे यह जान लें कि लोग आज आपके साथ हो सकते हैं लेकिन दीर्घकाल में आपको कोई पढ़ना नहीं चाहेगा। हे मेरे ब्‍लॉग मित्रों सारे वाद विवादों, झगड़ों को दरकिनार कर राष्‍ट्र और समाज के लिए कुछ करें। जिस देश, राष्‍ट्र में जन्‍म लिया, बलिदान उसी पर हो जाएं...बचपन में स्‍कूल में गाई जाने वाली प्रार्थना।

May 3, 2007

जैश-ए-मोहम्‍मद, बाबूभाई कटारा और जार्ज बुश भाई भाई


समूची दुनिया का दारोगा या गुंडा...क्‍या कहूं...तय नहीं कर पा रहा हूं, ने अचानक मीडिया को एक तगड़ी रिपोर्ट दे दी कि भारत में कमोडिटी और रियॉलिटी बाजारों में जो पैसा लगा है, उसमें जैश-ए-मोहम्‍मद की बड़ी भूमिका है। यानी भारतीय बाजार में जैश ऐश कर रहा है और हमें बताने का काम अमरीका कर रहा है। अमरीका को पता चला, उसने जांच की और रिपोर्ट दे दी...और भारत की गुप्‍तचर एजेंसियां इस दौरान पूरी तरह सोती रही कि यह काम अमरीका कर ही रहा है तो हमें क्‍या जरुरत है काम करने की, हम तो रिपोर्ट आने पर जम्‍हाई लेकर उठने का प्रयास करेंगे वह भी तब जब सरकार यह मान लेगी कि जैश यहां ऐश कर रहा है या नहीं....सरकार बोलती रही कि सीधा विदेशी निवेश दिन दुगुना और रात चौगुना आ रहा है। सकल विकास दर यानी जीडीपी दस फीसदी पहुंच जाए तो अचरज मत करना मेरी प्रजा। आर्थिक विकास का ढोल हम पीटते रहे और निवेश के खिलाड़ी निकले जैश-ए-मोहम्‍मद वाले।

अमरीका हमारा इतना प्‍यारा दोस्‍त हो गया कि उसने अपने काम धाम छोड़कर हमारे लिए चाकरी करनी शुरू कर दी। हालांकि, अपने यहां तो पहले ही कुछ संत कह गए है कि अजगर करे न चाकरी... अब भाई बुश सा को अपने देश में तो कोई काम ही नहीं मिल पा रहा जिससे वे भारत की ही चिंता करने लगे हैं जाते जाते। हालांकि, बुश सा यह अच्‍छी तरह जानते हैं कि अमरीका में कहां कहां से आकर पैसा लगा है, बहुत पारदर्शी है वहां...कोई आंख मिचौली का खेल नहीं है वहां निवेश पर। अमरीका ने खुद किन किन देशों में किस किस के माध्‍यम से पैसा लगाया है, दूध के धुले की तरह सारी दुनिया के सामने हिसाब रख दिया है। हमाम में भी कपड़े पहनकर रहता है ताकि कोई उसे हमाम में नंगा नहीं कह सके। अमरीका हमारा इतना भला दोस्‍त है, बेचारे ने सारे कामधाम छोड़कर पहले यह काम किया कि भारत को बता दें कि भाई आपके यहां जो पैसा लग रहा है वह आतंककारियों का है। बेचारे ने ईरान की गर्दन तोड़ने तक का काम अधबीच में छोड़ दिया और पहले भारत की तरफ लपका। अपने पुराने लंगोटिया यार पाकिस्‍तान तक को नहीं बताया कि देखो मियां इन दिनों हम तुम्‍हारा कोई काम नहीं कर पाएंगे, पहले तुम्‍हारे दुश्‍मन भारत का भला करना है हमें तो रिपोर्ट देकर। भले जैश-ए-मोहम्‍मद के लोग तुम्‍हारे यहां रहकर काम कर रहे हों लेकिन भारत को बताना हमारे जैसे दादाओं के लिए जरुरी है। नहीं तो यार तुम लोग भिड़ोगे कैसे और हमारा फायदा होगा कैसे।

एक अमरीकी मित्र हमें भी मिल गए, पूछ लिया यार तुम लोग अपना काम धाम छोड़कर वाकई जग भलाई के काम कर रहे हो, तुम्‍हें कौनसा नागरिक सम्‍मान दूं समझ नहीं आ रहा। उस अमरीकन ने पहले इधर उधर ताका झांका और हमारे कान के पास फुसफूसाया....यार हमारी हालत काफी खराब है। डॉलर रोज कमजोर होता जा रहा है, क्रूड के दाम आसमान पहुंच रहे हैं। सोने में निवेश बढ़ रहा है। हमारी तो आर्थिक हालत बिगड़ रही है, मंदी से उबरे तो अपने लिए कुछ करें नहीं तो तुम्‍हारे लिए ही करेंगे। हमने कहा...तुम्‍हारा मतलब है मैं तो विधवा होउंगी लेकिन तुझे भी सुहागिन नहीं रहने दूंगी। वह बोला...नो...नो...हमने लताड़ा यानी हम दस फीसदी और चीन 11 फीसदी से ज्‍यादा की विकास दर हासिल कर रहा है तो तुम्‍हें सुहा नहीं रहा। तुम तो मंदी में बैठ ही गए, बस हर साल एक के बाद एक देश पर हमला कर वहां से अपने लिए पैसा जुटा लेते हो दादागिरी करने का। जैश-ए-मोहम्‍मद की रिपोर्ट देकर भारत के कमोडिटी, रियॉलिटी और इक्विटी बाजारों में मंदी के झटके देना चाहते हो ताकि आम आदमी का पैसा तुम्‍हारे देश के एफआईआई जो हमारे यहां काम कर रहे हैं, उनके बैंक खातों में चला जाए। लानत है ऐसी चिंता पर यार।

आज हमें अनेक लोगों के फोन आए कि बाजारों का क्‍या होगा यह तो सब उल्‍टा होने जा रहा है। हमारा कहना है कि भारतीय गुप्‍तचर एजेंसियां भी काफी सक्षम है और घबराने की कोई जरुरत नहीं है। अमरीका कब से यह पता लगाने का काम कर रहा है कि भारत में पैसा जैश-ए-मोहम्‍मद के लोग लगा रहे हैं, क्‍यों नहीं उसने भारत की एजेंसियों को साथ लिया और उन लोगों या कंपनियों के नाम क्‍यों नहीं घोषित किए जो भारतीय बाजार में पैसा लगा रहे हैं ऐसे आंतककारी संगठन का। क्‍या अमरीका यह जांच कार्य भारत में कर रहा था और यदि हां तो क्‍या उन्‍होंने ऐसी जांच से पहले भारत सरकार को जानकारी दी थी। खुद अमरीकन यदि भारत आए थे और ऐसी रिपोर्ट की पुष्टि कर रहे थे तो क्‍या उन्‍होंने अपने मकसद भारत सरकार को बताए थे। यदि चुपचाप पुष्टि कर रहे थे तो वे चोरों की तरह क्‍यों घुसे। अमरीका ने रिपोर्ट में जैश-ए-मोहम्‍मद के ठिकाने और निवेश करने वालों के नाम, पते क्‍यों नहीं जारी किए ताकि वहां हमला कर उन्‍हें नष्‍ट किया जा सके। जिन लोगों के पास भारत में इस संगठन का पैसा पहुंचा है, उन्‍हें लतियाया जा सके।

केवल कागजी रिपोर्ट पेश करना आसान है मिस्‍टर बुश। आपके दोस्‍त डिक चीनी ने तेल के धंधे में क्‍या क्‍या किया सारी दुनिया जानती है। क्‍या उन्‍होंने और उनकी कपंनी ने सारा काम और निवेश ईमानदारी से किया। अमरीकनों ने जहां जहां निवेश किए हैं, उनकी भी जांच होनी चाहिए। क्‍या सारा निवेश पूरी तरह ईमानदारी के साथ और प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष रुप से किसी भी देश में गलत कार्यों के लिए निवेश नहीं किया है। मैं आतंककारियों और सत्‍ता में आकर लाइसेंसधारी आतंकी बनकर निवेश दोनों के खिलाफ हूं। हमारे राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने भी कहा था कि शेयर बाजार में आतंककारी संगठनों का पैसा लगा है, लेकिन उन्‍होंने नाम बताएं इन लोगों की कंपनियों के और निवेशकों के। भारतीय बाजारों में भी यह चर्चा अकसर होती है कि नेताओं और प्रशासकों का दो नंबर का पैसा बाजारों में लगा हुआ है लेकिन कानून सबूत मांगता है और वह किसी के पास नहीं है, जब तक कि सब कुछ पकड़ा न जाए कुछ नहीं हो सकता। निवेशक तो यहां तक कहते हैं कि शेयर बाजार, कमोडिटी बाजारों में आने वाले तगड़े झटके खुद सरकार में बैठे मंत्रियों की मिलीभगत से आते हैं। इनसाइडर बिजनैस किया जाता है, लेकिन सबूत न होने से कुछ नहीं हो पाता। यहां हम एक बात कमोडिटी बाजार की करते हैं सरकार मानती है कि दलहन के दाम तेजी से बढ़ रहे हैं और इन्‍हें सस्‍ता करने के लिए वायदा रोकना जरुरी है तो लोग कहने लगे हैं कि जब तुअर और उड़द के वायदा कारोबार पर रोक लग गई तो चने पर रोक क्‍यों नहीं लगी। चने पर रोक न लगने पर कई कारोबारियों का कहना था कि इसमें दक्षिण भारत के बड़े बड़े सटोरिएं शामिल हैं और इस पर कभी रोक नहीं लग सकती जब तक उनकी पोजीशन है। लोग कह रहे हैं कि मानसून में सीमेंट पर एक्‍साइज ड्यूटी कम हो जाएगी क्‍योंकि दक्षिण भारत की एक बड़ी सीमेंट कंपनी में कुछ सत्‍ताधारियों का पैसा लगा है और कंपनी को एक्‍साइज बढ़ने से बड़ा मुनाफा नहीं हो रहा है। ये बातें कहां से पैदा होती है।

जैश के साथ सत्‍ता में कर रहे ऐश वालों के पैसे भी आतंकियों के पैसे से कम नहीं है। खैर अच्‍छी बात तब होगी, जब हमारी सरकार ईमानदारी के साथ आतंककारियों और भ्रष्‍ट नेताओं व नौकरशाहों के पैसे को ढूंढकर इन्‍हें सजा दे और बाजारों को अधिक पारदर्शी बनाएं। भारतीय संविधान की शपथ लेकर संसद में बैठने वाले बाबूभाई कटारा और सवाल पूछने के लिए धन लेने वाले सांसद जब देश को चला रहे हो तो कुछ भी हो सकता है। सरकार में बैठे लोग ऐसे भ्रष्‍ट सांसदों के चरित्र और कामकाज का पता नहीं लगा पाई तो मुझे मुशिकल लगता है कि वह जैश के पैसे को खोज पाएगी।

May 1, 2007

रेजीमेंट बनानी है लेकिन सेना में गए बगैर !

राजस्‍थान जन्‍म और महाराष्‍ट्र कर्म भूमि होने के बावजूद मुझे गुजरात से बेहद प्‍यार है। इस राज्‍य के अनेक नगर मुझे सुहाने लगते हैं। कुछ दिनों से अवकाश पर हूं, जिसकी वजह से ब्‍लॉग पर भी नियमित लेखन नहीं है। कल सुबह ही राजकोट और अहमदाबाद घूमकर लौटा हूं। मुंबई आते समय गुजरात क्‍वीन ट्रेन में एक युवक सामने की सीट पर बैठा हुआ था और मोबाइल पर बात कर रहा था कि सीमेंट बनाने के लिए कौन कौन सा कच्‍चा माल काम में आता है। फोन पर सामने वाले ने जो बताया उसके बाद उसका जवाब था कि मेरा यह सवाल सही हो गया। मैंने भी बात छेड़ दी कि सीमेंट बनाने के कारखाने में परीक्षा देने गए थे क्‍या। उस युवक ने बताया नहीं, रेलवे में ड्राइवर की जगह निकली है और वही परीक्षा देने यहां नवसारी से आया था। मैंने पूछा क्‍या यह पहला प्रयास है, उसका कहना था नहीं, यह मेरा 12 वां प्रयास है और एक सप्‍ताह बाद मुंबई में भी रेल ड्राइवर की परीक्षा देने जाना है। मैंने सोचा लगे रहो मोहम्‍मद गौरी की तरह। लेकिन फिर उस युवक से कहा कि सेना क्‍यों नहीं ज्‍वॉइन कर लेते....एक दो प्रयास में ही वहां बात बन जाएगी। उस युवक का कहना था कि घर वाले सेना में जाने के खिलाफ हैं, सेना में जाने से अच्‍छा है कि यहीं कोई छोटा मोटा काम कर लूं।

गुजरात के मुख्‍यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार कहा था कि सेना में गुजरात रेजीमेंट होनी चाहिए। लेकिन जब गुजराती युवाओं में सेना के प्रति मोह ही नहीं है तो कैसी रेजीमेंट और कैसी बटालियन। इस सच को सभी जानते हैं कि गुजराती परंपरागत रुप से योद्धा जैसे स्‍वभाव के नहीं हैं, बल्कि कारोबार करने वाले हैं। गुजरात की भौगोलिक स्थिति की बात करें तो तटीय इलाकों ने यहां की जनता को एक योद्धा नहीं बनाकर कारोबारी बना दिया। गुजरात की सीमाएं प्राकृतिक रुप से सुरक्षित होने से यहां की जनता योद्धा वाले स्‍वभाव की नहीं है। राज्‍य के कच्‍छ जिले के 18 हजार वर्ग किलोमीटर में कच्‍छ का रण है जो इसे बेहद सुरक्षित बनाती है। लेकिन दीर्घकाल की दृष्टि से देखा जाए तो गुजरात की जनता में एक योद्धा का स्‍वभाव पैदा करना जरुरी है। इस राज्‍य के उत्‍तर की ओर चार हजार किलोमीटर तक रुस, पाकिस्‍तान, अफगानिस्‍तान, तजाकिस्‍तान, किर्दीस्‍तान और कजाकिस्‍तान जैसे देश हैं। पश्चिम में अरब सागर से लेकर अटलांटिक महासागर तक 11 हजार किलोमीटर के क्षेत्र में ऐसे अनेक देश हैं जहां एक बेहद जुनूनी कौम रहती है। इन देशों में से एक मंगोलिया में चंगेज खान को राष्‍ट्रीय नायक माना जाता है। उजेबेकिस्‍तान ने सोवियत संघ से अलग होते ही लेनिन और स्‍टालिन के बजाय तैमूर लंग को अपना महानायक घोषित किया। ग्रीस आज भी एलेक्‍जैंडर द ग्रेट को अपना महानायक मानता है। भारतीय राज्‍यों की बात करें तो राजस्‍थान में महाराणा प्रताप, पंजाब में गुरु गोविंद सिंह, महाराष्‍ट्र में शिवाजी को पूजा जाता है लेकिन गुजरात में वहां के महानायक सिद्धराज जयसिंह इस सम्‍मान से वंचित है। सिद्धराज जयसिंह के समय गुजरात को एक देश की तरह दक्षिण में कोंकण, उत्‍तर में अजमेर व सिंध, पूर्व में ग्‍वालियर तक फैला दिया गया था।

राष्‍ट्रपति अब्‍दुल कलाम जी ने वर्ष 2005 में जयपुर में कहा था कि देश में सभी नागरिकों के लिए सैन्‍य प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। इससे युवा पीढ़ी में देश प्रेम और अनुशासन बढ़ेगा। विश्‍व के अनेक राष्‍ट्रों में सैन्‍य प्रशिक्षण जरुरी है और वहां कोई भी नागरिक इस तरह के प्रशिक्षण से इनकार नहीं कर सकता। गुजराती युवाओं को यदि गुजरात रेजीमेंट बनने का गौरव अपने राज्‍य को दिलाना है तो खुद को इसके लिए तैयार करना होगा। साथ ही अपने परिजनों को यह समझाना होगा कि सेना में जाना गौरव की बात है। अन्‍य नौकरियों या कारोबार की तरह सेना को भी अपनी वरीयता सूची में शामिल करना होगा। लेकिन यहां मैं एक बेहद कड़वी बात कहना चाहूंगा कि तम्‍बाकू, मावा, गुटखा और शराब के सहारे जीने वाले गुजराती युवाओं को इनका सेवन छोड़ने के अलावा पान की दुकानों पर फिजूल की गप्‍पबाजी से बाज आना होगा तभी भारतीय सेना में गुजराती रेजीमेंट बनेगी और गुजरात का गौरव बढ़ेगा।

April 20, 2007

बलात्‍कार और हत्‍या करने के लिए स्‍टूडियों में आएं

कर भला तो हो भला, यह कहावत मुझे नहीं लगता कि किसी ने सुनी नहीं होगी। हां, यदि किसी ने न सुनी हो तो अब सुन ले या पढ़ ले। यह कहावत उन लोगों पर अब लागू नहीं होती जो दूसरे का भला करना चाहते हैं। फिर चाहे भलाई इंसानियत के तौर पर की जा रही हो या फिर स्‍वार्थ के वशीभूत होकर। लेकिन यह कहावत भारतीय मीडिया खासतौर पर इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम पर तो पूरी तरह लागू होती है। देश का इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम इतनी ज्‍यादा भलाई के काम कर रहा है कि पिछले दिनों उसके एक घराने पर मुंबई में हमला हो गया। हालांकि, इस हमले को प्रैस पर हमला, लोकतंत्र पर हमला, आजादी पर हमला और पता नहीं कौन कौन सा हमला बताया गया। हमला बोले भी क्‍यों नहीं, आखिर टीवी चैनल सभी का भला करने में लगा है। अपराध को इस तरह परोसा जा रहा है कि जैसे हमारा अगला लक्ष्‍य कृषि प्रधान देश के बजाय अपराध प्रधान देश हो। जब देश अपराध प्रधान देश बन जाएगा तो इनका भी भला होगा क्‍योंकि बढ़ती टीआरपी इनका भी भला करेगी। कर भला हो भला...। अपराध प्रधान देश्‍ा बनाने से पहले ये चैनल रोज रात में यह बताते हैं कि आज कौन कौन से अपराध हुए और कैसे हुए। इन अपराधों में ऐसी कौनसी खामियां रह गई कि अपराधी पकड़े गए। अरे भई वैसे आप जो बताते हैं उससे अगले अपराधी को अपने दोस्‍त अपराधी से यह तो सीखने को मिल ही जाता है कि अपराध करते समय उन गलतियों को न दोहराया जाए। लेकिन अब अपने कार्यक्रमों में यह भी बताना चाहिए कि एक अपराध कैसे करें और किन किन गलतियों से बचे ताकि पुलिस के हाथ नहीं केवल मीडिया के हाथ अपराधी और स्‍टोरी लग सके। पुलिस बेचारी ठन ठन पाल मदन गोपाल की तरह टीवी ही देखती रहे और अपराधी एंकर के साथ खड़ा होकर सीना चौड़ा कर अपने कारनामे के बारे में बताएं और एंकर पूछता जाए...वहां माहौल कैसा था। कितनी पब्लिक थी..जब आपने बलात्‍कार व हत्‍या की तो लोगों की क्‍या प्रतिक्रिया थी। बलात्‍कार करने से पहले आपने अपने को किस तरह तैयार किया..बलात्‍कार के बाद जब हत्‍या की तो किस तरह आपने अपने दिल की धड़कनों पर काबू पाया...अगला अपराध कब आदि आदि। इस पर देश भर से हजारों मूर्ख एसएमएस के जरिये यह भी बता रहे हैं कि क्‍या यह नए ढंग का अपराध है या नहीं। एंकर बोल रहा है कि हमारे पास पांच लाख से ज्‍यादा एसएमएस आए हैं और 60 फीसदी का कहना है कि यह नए ढंग का यूनिक अपराध है। क्‍या कल आप बाल बलात्‍कार देखना चाहेंगे....हमें एसएमएस करें...हां के लिए ए....नहीं के लिए....बी...अपना मैसेज टाइप करें और भेजें 0000 पर। टीवी चैनलों पर वैसे जो लोग ऐसे कार्यक्रम पेश करते हैं वे भी किसी अपराधी की शक्‍ल से कम नहीं लगते। इस तरह के हाव भाव और चेहरा मानों सीधे यरवडा जेल से चले आ रहे हैं कार्यक्रम पेश करने। कुछ लोग भूत बंगला जैसे कार्यक्रम से लेकर भूतों से मोबाइल तक पर बात कराते हैं। जै हो....जै हो...देश फिर से सांप और मदारियों के युग में लौट रहा है। अंधविश्‍वास की ओर हम आगे बढ़ रहे हैं...हमें राजनीतिक और आर्थिक महासत्‍ता बनकर करना क्‍या है। संयुक्‍त राष्‍ट्र सभा में हमें चीन, फ्रांस, रुस, ब्रिटेन, अमरीका की तरह वीटो पावर जैसी ताकत लेकर करना क्‍या है। क्‍यों हम एशिया की सबसे बड़ी ताकत बने। हमें तो अपराध प्रधान देश बनना है, हमें चाहिए कूल्‍हें हिलाने और कमरिया लचके से लेकर भूत, बार डांसरों के जलवे, कुकर्मों की कहानी जैसे समाचार। मजा आता है यार...जब किसी बार डांसर के जलवे देखते हैं तो लार टपकती है, यह कैसे और कब मिलेगी। अरे टीवी वालों इसका फोन नंबर और रेट दो बता दो। पैसे अरेंज करने में लग जाएं ताकि। मॉडल देह व्‍यवसाय में शामिल...यारों नंबर और रेट और डेट क्‍यों नहीं बता देते कि यह कब तक मिल सकेगी। लानत है ऐसे समाचारों पर।

मुझे एक पुराना विज्ञापन याद है जिसमें कहा गया था कि चाहिए एक संपादक, वेतन दो सूखी रोटियां और ठंडा पानी। या फिर जो कहा गया था कि सफल संपादक वह है जो हर पखवाड़े शहर के चौराहे पर पिटे। भारतीय इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम में सब दौड़ रहे हैं कि हे भगवान मेरी टीआरपी कैसे भी बढ़ जाए। भले ही इसके लिए कभी स्‍टूडियो में लाकर किसी की हत्‍या कर उसके विजुअल भी दिखाना पड़े तो हम दिखाएंगे। चौबीस घंटे....हॉय चौबीस घंटे....ले लो न्‍यूज...जबरदस्‍ती देख लो...लेकिन टीआरपी बढ़ा दो। टीवी चैनलों पर एक विज्ञापन चलाते रहना चाहिए कि यदि आप बलात्‍कार करने वाले हैं, या हत्‍या अथवा नंगा नाच तो प्‍लीज हमारे स्‍टूडियो में आकर करें आपको पुलिस नहीं पकड़ेगी और हम इसे समूचे राष्‍ट्र के सामने पेश करेंगे ताकि दूसरे लोग सब लाइव देख सके एवं जो हमारी टीआरपी बढ़ेगी उससे हमारा कल्‍याण होगा। आइए...आइए...बलात्‍कार व हत्‍या के लिए यहां पधारे...दूसरे चैनल पर नहीं। सिर्फ इसी चैनल पर। एनडीटीवी ने डॉयल 100 जैसा कार्यक्रम बंद कर एक मिसाल पेश की है लेकिन दूसरे चैनल आपराधिक न्‍यूज को इतना बढ़ा चढ़ाकर और नाटय रुपांतरण कर पेश करते हैं कि लगता है कि सब कुछ मीडिया ही करवा रहा है। मुझे लगता है यह बकवास बंद होनी चाहिए और इस पर बहस होनी चाहिए कि ऐसे कार्यक्रम चलते रहने चाहिए या नहीं। कही दीर्घकाल में समाज पर विपरीत असर तो नहीं डालेंगे। यदि असर डालते हैं तो इसका नुकसान मीडिया से वसूल करना चाहिए। आज भारत को दुनिया में आर्थिक और राजनीतिक महासत्‍ता के रुप में स्‍थापित करना है तो हमें न्‍यूज और कार्यक्रम भी वैसे ही लाने होंगे जिनसे समाज के हर तबके का भला हो। वैसे अपराध के अलावा सेलिब्रिटी को लेकर भी काफी कुछ किया जा सकता है जिससे टीआरपी और बढ़ेगी। मसलन यह नहीं बताएं कि सेलिब्रिटी ने क्‍या खाया, क्‍या पीया, बुखार आया या उतरा। बल्कि यह भी बता सकते हैं जब ज्‍यादा न्‍यूज न हो तब सर/मैडम यही बात दें कि आज आपने कौनसे कलर की चड्डी पहनी है और फिर दिन भर यही लाइव चलेगा कि फलां हस्‍ती ने आज इस रंग की चड्डी पहनी है और इसके कारण्‍ा क्‍या हैं। एक ज्‍योतिष महाराज आकर बोलेंगे इस कलर की चड्डी से इन्‍हें ये ये लाभ हैं। इनका भविष्‍य यह है। टीआरपी प्रणाली को पूरी तरह बंद कर दिया जाना चाहिए, बलिक बेहतर और क्‍वॉलिटी की खबरों के आधार पर इनकी रेटिंग होनी चाहिए। ये कहते हैं कि जनता यही देखना चाहती है जो हम दिखा रहे हैं, जनता तो नंग धड़ग एंकर देखना चाहती है, कर देना सबको नंगा। बैठा देना कुर्सी के बजाय टेबल पर, सब दिखेगा और टीआरपी बढ़ेगी। प्रेस की आजादी के नाम पर जो बेकार का हल्‍ला मचाया गया वह प्रेस की आजादी पर हमला नहीं था। ढोंग कर रहे हैं, ऐसे लोग जो इसे हमला बता रहे हैं। कभी कभी तो लगता है ये लोग न्‍यूज पढ़ रहे हैं या चीख चीख कर हल्‍ला मचा रहे हैं। हथौड़ा मार रहे हैं दर्शकों के सिर पर। धीरे और शालीन तरीके से पढ़ो न खबरें। ये लोग जो हथौंडा मार ब्रांड खबरें सुना रहे हैं वह आम जनता पर हमला है और जनता से ऊपर कोई स्‍तंभ नहीं, भले वह चौथा स्‍तंभ पत्रकारिता ही क्‍यों नहीं हो।

April 18, 2007

गुगल का यह है मस्‍त दफ्तर--फोटो
























कैलिफोर्निया में माउंटेनव्‍यू स्थि‍त दुनिया के मुख्‍य सर्च इंजन गुगल का दफ्तर। कभी भी कार्य और कभी भी सोना...दफ्तर ऐसा जैसे व्‍यक्तिगत जगह। कहीं भी सोना और आराम ताकि कार्य के लिए वापस तरोताजा। खेलने के लिए खूब जगह और बेहतर माहौल। गपशप के साथ खेलकूद का आनंद। ऑफिस में अपने पालतू जानवरों के साथ प्‍यार और मस्‍ती। कुछ दिन पहले ही खबर आई थी कि गुगल का एक कर्मचारी तो अपने पालतू सांप को ही दफ्तर ले आया जिसे बड़ी मेहनत के बाद ही ढूंढा जा सका। रसोई का भी मजा लीजिए यहां। जब जी चाहा जायकेदार खाना बनाया और खाया। कुछ कर्मचारियों ने ऑफिस को सजा लिया....अब यह तो ऐसा लगता है कि यह टॉय शॉप है या ऑफिस। लीजिए यह पेश है फन व गेम्‍स...ऑफिस है या मौज मजे की जगह। बोर हो गए तो आनंद लीजिए म्‍युजिक का। और यह है आइडिया बोर्ड...आओं और लिख डालो जो आइडिया दिमाग में आता हो। आइडिया के लिए चाहिए मुफ्त का भोजन..खाना फ्री में मिल जाए तो आइडिया भी खूब आते हैं। गुगल में है, स‍ब जगह फ्री फूड...क्‍या यह सुपर मार्केट जैसा है। हां, तो मजे से खाने के लिए पेश हैं चाकलेट ही चाकलेट....। आखिर में लांड्री...। अब आप ही बताएं जब दफ्तर ऐसा हो तो घर कौन जाएगा........दफ्तर में ही घर नहीं बसा लेगा। सभी फोटो:उमेश आर्य के सौजन्‍य से।

April 16, 2007

पापड़ ने बनाया पूरे गांव को मालामाल


सृजन शिल्‍पी जी ने बीते शुक्रवार को लिखा था कि पत्रकारों, आओं अब गांवों की ओर लौटें। अब मैं आपको बताता हूं कि गुजरात के एक सफल गांव की कहानी जिसने पापड़ के बल पर पूरी गरीबी ही दूरी नही की, बल्कि आज वहां हर घर में से कम से कम एक सदस्‍य एनआरआई है। समूचे भारत में है कोई ऐसा शहर या महानगर जिसने इस तरह का कारनामा कर दिखाया हो। इस गांव पर मेरी यह रिपोर्ट सहारा समय साप्‍ताहिक में छपी चुकी है जिसे आज ब्‍लॉग पर डाला जा रहा है। पापड़ बेलना....कड़ी मेहनत के लिए जग प्रसिद्ध इस कहावत ने किसी की तकदीर बदली हो या नहीं लेकिन गुजरात के एक छोटे से गांव उत्‍तरसंडा की तकदीर जरुरी बदल दी। गुजरात के नडियाद शहर से छह किलोमीटर दूर उत्‍तरसंडा गांव आज समूची दुनिया में पापड़ के लिए विख्‍यात हो गया है वहीं इस गांव में गरीबी का नामोनिशान नहीं है। इस गांव में अब हर घर में कम से कम एक सदस्‍य अनिवासी भारतीय भी बन गया है। तकरीबन 17 हजार की आबादी वाले इस गांव में पापड़ के छोटे बड़े लगभग 22 उत्‍पादक हैं। यहां के पापड़ देश में ही नहीं विदेश में भी खूब बिक रहे हें।

गुजरात के खेडा जिले के गांव उत्‍तरसंडा में 1986 में पापड़ बनाने की शुरूआत हुई। उत्‍तरसंडा के पड़ौसी गांव के निवासी दीपक पटेल ने उत्‍तम पापड़ ब्रांड के तहत पापड़ बनाने का यहां पहला कारखाना खोला। इस समय यह कारखाना करमसद गांव के रहने वाले जीतू त्रिवेदी संभाल रहे हैं। दीपक पटेल के पुत्र अमरीका में रह रहे हैं और दीपक पटेल भी वहीं चले गए हैं। उत्‍तरसंडा में पापड़ बनाने की ऑटोमैटिक मशीनें भी आ गई हैं जिनमें पापड़ सूखकर बाहर आता है। जीतू त्रिवेदी का कहना है कि धूप में सूखने वाले पापड़ में मिर्च मसालों की सुगंध हमेशा बनी रहती है। साथ ही पापड़ ताजा हो तभी स्‍वादिष्‍ट लगता है। स्‍वाद की गहराई बताते हुए जीतू त्रिवेदी कहते हैं कि पापड़ का स्‍वादा 25 दिन बाद बदल जाता है। उत्‍तरसंडा के 22 पापड़ उत्‍पादकों में से चार मुख्‍य हैं जिनमें उत्‍तम पापड़, श्रीजी पापड़, यश पापड़ और हर्ष पापड़ हैं। उत्‍तम पापड़ को छोड़कर सभी पापड़ उत्‍पादकों के पास पापड़ बेलने, सूखाने के बाद तीन मिनट में पैकिंग के लिए पापड़ के तैयार हो जाने वाली मशीनें आ गई हैं। इस गांव में पापड़ के लिए आटा गूंथने, पापड़ बेलने और सूखाने का काम मशीनों से ही होता है।

श्रीजी पापड़ के मालिक कनुभाई पटेल कहते हैं कि रोजाना 500 किलो पापड़ बनाने की दो मशीनें और एक हजार किलो पापड़ बनाने वाली एक मशीन लगातार काम करती रहे तो भी हम मांग को पूरा नहीं कर पाते। कनुभाई के कारखाने में तकरीबन सौ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। वे कहते हैं कि हमारा समूचा कारोबार नगद में होता है, कोई उधार नहीं।

हर रोज एक हजार किलो पापड़ बनाने वाले यश पापड़ के मालिक देवेन्‍द्र पटेल बताते हैं कि हमने 1997 में रोजाना सौ किलो पापड़ बनाने से शुरूआत की थी और आज हमारे पापड़ लंदन, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रिया, चीन, अमरीका और खाड़ी के देशों में खूब बिक रहे हैं। यश पापड़ सिंगल मिर्च, डबल मिर्च, लहसुन, पंजाबी, जीरामिर्च, पूरी पापड़, डिस्‍को पापड़, ओनली गार्लिक, लाल मिर्च पापड़ सहित बारह तरह के पापड़ और मठियां व चोराफली बनाते हैं।

उत्‍तरसंडा के पापड़ उत्‍पादकों का कहना है कि इस गांव की जलवायु पापड़ उद्योग के अनुकूल है जो पापड़ को सफेद, कोमल, पतला और स्‍वादिस्‍ष्‍ट बनाती है। उत्‍तरसंडा में पापड़ उत्‍पादकों को उड़द एंव मोठ की दाल और मसालों की आपूर्ति करने वाले हितेश दलाल कहते हैं कि उत्‍तरसंडा में रोजाना चार हजार किलो से ज्‍यादा पापड़ बनते और बिकते हैं।

साइड बिजनैस के रुप में शुरूआत करने वाले हर्ष पापड़ के मालिक वैशाली पटेल और प्रीतेश पटेल के लिए अब यही मुख्‍य कारोबार बन गया है। पापड़ उत्‍पादकों का संगठन न होने से पापड़ के भावों को लेकर सभी उत्‍पादकों में एक समानता न होने और बैंकों के रुखे व्‍यवहार से प्रीतेश पटेल काफी नाराज हैं। वे कहते हैं कि हमारा अच्‍छा कारोबार होने के बावजूद बैंक कर्ज देने से आनाकानी करते हैं। सरकारी बैंक कहते हैं कि कर्ज चाहिए तो फिक्‍स डिपॉजिट देनी होगी। अगर हमारे पास फिक्‍स डिपॉजिट के लिए पैसा हो तो हम कर्ज क्‍यों लेना चाहेंगे। वाकई पापड़ जैसे एक छोटे से उत्‍पाद ने इस गांव को जिस तरह आर्थिक रुप से सबल बना दिया वह देश के हजारों गांवों के लिए अनुकरणीय है।

April 14, 2007

रेडियो 24x7 न्‍यूज लाइव

सृजन शिल्‍पी जी ने कल लिखा था कि पत्रकारों, आओं अब गांवों की ओर लौटें। बेहतरीन रिपोर्ट थी यह, जिसमें रेडियो का भी जिक्र था। सृजन शिल्‍पी जी ने जो बात लिखी वह गौर करने लायक थी ‘बिजली और केबल कनेक्शन के अभाव में टेलीविज़न भी ग्रामीण क्षेत्रों तक नहीं पहुँच पाता। ऐसे में रेडियो ही एक ऐसा सशक्त माध्यम बचता है जो सुगमता से सुदूर गाँवों-देहातों में रहने वाले जन-जन तक बिना किसी बाधा के पहुँचता है। रेडियो आम जनता का माध्यम है और इसकी पहुँच हर जगह है, इसलिए ग्रामीण पत्रकारिता के ध्वजवाहक की भूमिका रेडियो को ही निभानी पड़ेगी। रेडियो के माध्यम से ग्रामीण पत्रकारिता को नई बुलंदियों तक पहुँचाया जा सकता है और पत्रकारिता के क्षेत्र में नए-नए आयाम खोले जा सकते हैं। इसके लिए रेडियो को अपना मिशन महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज्य के स्वप्न को साकार करने को बनाना पड़ेगा और उसको ध्यान में रखते हुए अपने कार्यक्रमों के स्वरूप और सामग्री में अनुकूल परिवर्तन करने होंगे। निश्चित रूप से इस अभियान में रेडियो की भूमिका केवल एक उत्प्रेरक की ही होगी।‘ शिल्‍पी जी की इन लाइनों पर कल काफी गौर किया। असल में देखा जाए तो गांवों में ही नहीं, महानगरों, शहरों और कस्‍बों में भी रेडियो बड़ी भूमिका निभा सकता है। आकाशवाणी और बीबीसी आज भी खबरों के लिए गांवों और कस्‍बों में रह रहे लाखों लोगों के लिए समाचार, विचार और मनोरंजन का सशक्‍त माध्‍यम बना हुआ है। देहातों से निकलने वाले छोटे अखबारों के लिए आज भी रेडियो प्राण है।

आकाशवाणी से आने वाले धीमी गति के समाचार इन अखबारों में सुने नहीं लिखे जाते थे ताकि ये अखबार अपनी समाचार जरुरत को पूरा कर सके। शाम को आने वाले खेल समाचार और प्रादेशिक समाचार के बुलेटिन भी यहां ध्‍यान दो-चार पत्रकार बैठकर सुनते थे। वर्ष 1988 में मुझे हरियाणा के कस्‍बे, लेकिन अब शहर करनाल में एक अखबार विश्‍व मानव में काम करने का मौका मिला, जहां दिन भर रेडियो की खबरों को सुना और लिखा जाता था। समाचार एजेंसियों से ज्‍यादा वहां रेडियों को महत्‍व दिया जाता था। हमारे यहां भाषा की सेवा थी लेकिन महीने में यह कई बार चलती ही नहीं थी, ऐसे में रेडियो हमें बचा ले जाता था, अन्‍यथा हो सकता था कि हमें बगैर समाचार के अखबार छापना पड़ता। आज भी गांवों और सीमांत क्षेत्रों में रेडियो का महत्‍व कम नहीं हुआ है। लोग खूब सुनते हैं समाचार, विश्‍लेषण और खास रपटें। यह खबर बीबीसी और आकाशवाणी पर सुनी है, यानी कन्‍फर्म हो गया। ऐसा कहते हैं गांवों में आज भी। हालांकि, यह भी सच है कि रेडियो पर आनी वाली खबरों, खबर कार्यक्रमों में बेहद बदलाव की जरुरत है। नई पीढ़ी की जरुरत के कार्यक्रम शामिल करने होंगे। जहां तक मेरा ज्ञान है सरकार ने एफएम रेडियो को न्‍यूज में आने की अनुमति अभी नहीं दी है। यदि सरकार यह अनुमति दे दें तो गांव भी बेहतर प्रगति कर सकते हैं लेकिन फिर रेडियो सेवा चलाने वालों को यह ध्‍यान में रखना होगा कि वे ग्रामीण पत्रकारिता का विशेष ख्‍याल रखें।

रेडियो पर 24x7 समाचार सेवा दूसरे किसी भी माध्‍यम से बेहतर चल सकती है। इस पर भी टीवी माध्‍यम की तरह समाचार की लाइव सेवा चलाई जा सकती है। अंतरराष्‍ट्रीय, राष्‍ट्रीय, राज्‍यस्‍तरीय समाचारों के अलावा देश के विभिन्‍न जिलों के मुख्‍य समाचार सुनाए जा सकते हैं। खेल, कारोबार, संस्‍कृति, मनोरंजन, इंटरव्‍यू, अपराध, महिला, बच्‍चों से जुड़े समाचार यानी वह सब कुछ जो एक अखबार या टीवी माध्‍यम में बताया जा सकता है। मनोरंजन के अलावा लाइफ स्‍टाइल, कैरियर, शॉपिंग, सिनेमा, शिक्षा आदि सभी के बारे में प्रोग्राम सुनाए जा सकते हैं। यहां मैं जिक्र करुंगा मुंबई विश्‍वविद्यालय का जिसने 107.8 एफएम पर चार घंटे कैम्‍पस समाचार, सेमिनार और विविध विषयों पर चर्चा करने की योजना बनाई है। मेरा ऐसा मानना है कि कम्‍युनिटी रेडियो से हटकर हरेक भाषाओं और हिंदी में राष्‍ट्रीय स्‍तर पर समाचारों के लिए कार्य किया जा सकता है। प्रिंट माध्‍यम में कई बार छोटे-छोटे गांवों में हर रोज अखबार ही नहीं पहुंच पाते या जो पहुंचते हैं वे वहां पहुंचते-पहुंचते बासी हो जाते हैं। साथ ही किसी अखबार घराने को दो चार प्रतियां भेजने में रुचि भी नहीं रहती। इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम को देखें तो गांवों को बिजली ही नहीं मिल पाती, अब तो यह हालत छोटे और मध्‍यम शहरों की भी है।

मुंबई जहां मैं रहता हूं, के आखिरी उपनगर दहिसर से केवल 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित वसई से लेकर आगे तक के उपनगरों में रोज दस से बारह घंटे बिजली नहीं रहती, समूचे देश की भी स्थिति बिजली के मामले में यही है। देश के दो चार राज्‍य ऐसे होंगे जिन्‍हें छोड़कर हर जगह बिजली की बेहद कमी है। साथ ही गांवों में लोगों को केबल के 200-300 रुपए महीना देना भारी लगता है। लाखों लोग आज भी इस स्थिति में है रंगीन तो छोडि़ए श्‍याम श्‍वेत टीवी भी नहीं खरीद सकते। दूसरों के यहां टीवी होता है, उसे टुकर टुकर देखते रहते हैं। बच्‍चे सपने बुनते रहते हैं कि बड़ा होऊंगा तब टीवी जरुर खरीदूंगा। इसलिए टीवी समाचारों से एक बड़ा वर्ग इन तीन वजहों से वंचित हो जाता है। अब बात करते हैं वेब समाचारों का। जब बिजली ही नहीं तो कंप्‍यूटर कैसे चलेगा। एक कंप्‍यूटर और स्‍टेबलाइजर के लिए कम से कम 30-35 हजार रुपए खर्च करने होते हैं जो हरेक के बस की बात नहीं है।

लेकिन अब तो रेडियो एफएम के साथ 30 रुपए से लेकर 500 रुपए तक की हर रेंज में ईयर फोन के साथ मिलते हैं। दो पैंसिल सेल डाल लिए, और जुड़ गए देश, दुनिया से। यह आकाशवाणी है...या...बीबीसी की इस पहली सभा में आपका स्‍वागत है...। आया न मजा.... क्‍या खेत, क्‍या खलिहान, पशुओं का दूध निकालते हुए, उन्‍हें चराते हुए, शहर में दूध व सब्‍जी बेचने जाते हुए, साइकिल, मोटर साइकिल, बस, रेल, दुकान, नौकरी, कार ड्राइव करते हुए सब जगह समाचार, मनोरंजन वह भी 30 रुपए के रेडियो में..रेडियो खराब भी हो गया तो ज्‍यादा गम नहीं....नया ले लेंगे फिर मजदूरी कर। लेकिन मौजूदा आकाशवाणी, रेडियो सेवा चलाने वाले लोगों की जरुरत के अनुरुप खबरें और कार्यक्रम नहीं दे पा रहे हैं जिससे इनका प्रचलन कम हुआ है। मेरे मित्र सेठ होशंगाबादी बता रहे थे कि मध्‍य प्रदेश और महाराष्‍ट्र के अनेक ऐसे इलाकों में मैं घूमा हूं जहां ढोर चराते लोग और ग्‍वाले, साइकिल पर जाते लोग रेडियो कान से सटाकर रखते थे लेकिन अब यह प्रचलन घटा है। रेडियो श्रोता संघ तो पूरी तरह खत्‍म से हो गए हैं। रेडियो सेवा देने वाले यदि लोगों की आवश्‍यकता पर शोध करें तो रेडियो प्रिंट, टीवी और वेब माध्‍यम को काफी पीछे छोड़कर सबसे शक्तिशाली माध्‍यम बन सकता है।

April 12, 2007

आत्‍महत्‍या से पहले विदर्भ के किसान की चिटठी


To,
Police Station Officer,
Police Station,
Wadgoan,

I humbly submit that applicant govinda zeetruji junghare at-post- mettikheda taluka-kalamb distt.-yavatmal.
Subject-my family shocked as farm land is without being sowing any crop. Who can we live without doing farming?

I have no bullock for farming my land;
I have no money for seed, what is to be done?
I can not think more. Money lenders are daily coming to my home at abusing me I tried to arrange to money to repay but I could not arrange to money.

I did apply for crop loan case in bank but banker too has not given me the money yet.

Money Leander has threatened me to arrange the money otherwise they will take away tinplates fitted to my house.
But I am not having five paisa today how can repay my loan,

I think over this crisis lot of time and then decided I should die instead of living I should hang myself or take poison to die. Money Leander REKHA NAMDEO NIKHADE'S debt RS.5000/- has a quarrel with me and manager of money Leander nurruseth is always keeping to my house to asking for RS.4000/- to pay back this has made me mad.

No banker has given me the loan.

I have my wife two son and marriageable daughter and how to do daughter's marriage,

I have no money at home one son is critical ill and suffering from T.B.
Nobody should trouble my family hence I have written this letter in detail

Yours faithfully
Shri Govinda Zeetruji Junghare

April 11, 2007

कायर होते हैं बेनाम

कई दिनों से सोच रहा था कि बेनामों के बारे में कुछ लिखा जाए....क्‍योंकि बगैर मां बाप या आईडी के घूम रहे इन बेनामों की भी सुध लेना जरुरी है। क्‍योंकि सरकार भी स्‍ट्रीट चाइल्‍डों के लिए चलते फिरते स्‍कूल चलाती है।
हालांकि, इन बच्‍चों के नाम होते हैं, फिर चाहे पूरे और सलीके के नाम न हो। ये नाम भी हो सकते हैं...कालू, धौलू, लालू..या भौंदू....लेकिन नाम जरुर होता है। लेकिन इंटरनेट यूजरों के नाम नहीं है, यह जानकर अचरज होता है कि क्‍या ये मैटरनिटी अस्‍पतालों के बजाय इंटरनेट पर पैदा हुए हैं क्‍या, जहां एक अदद मां बाप न मिल सके। इंटरनेट पर बच्‍चों को गोद लेने संबंधी भी विज्ञापन लगे रहते हैं तो फिर ये बेनाम वहां क्‍यों नही एप्‍लाई कर देते ताकि कोई इन्‍हें दत्‍तक ले लें और नाम रखे दे..फिर चाहे नाम इनका भौंदू ही क्‍यों न रखा जाए। मेरा ख्‍याल है कि अगर ये बेनाम एक परखनली ही पकड़ लेते तो परखनली शिशु होने का गौरव इन्‍हें मिल जाता। अपने बॉयोडाटा में भी लिख सकते थे कि भारत का दूसरा परखनली शिशु...तीसरा....पांच सौवां...आदि।

कल नारद पर देखा कि भाई प्रमोद सिंह ने लिखा कि इन बेनामों का बाप कौन है ? मजा आ गया। चिट्ठेकारों की दुनिया में मैं पुराना नहीं हूं और पुराना होना भी नहीं चाहता। हमेशा नया रहना चाहता हूं। ब्‍लॉग पर परोसी सामग्री पर टिप्‍पणियां मिलती हैं...खट्टी...मिठ्ठी...कड़वी..कसैली...सुंदर। अच्‍छा लगता है टिप्‍पणियां देखकर, पढ़कर। दूसरे लेखकों के ब्‍लॉग और टिप्‍पणियां भी पढ़ता हूं, काफी नई चीजें सीखने, जानने को मिल रही हैं। नए दोस्‍त बन रहे हैं। मैं अपने ब्‍लॉग पर आने वाली सभी टिप्‍पणियों को जस का तस प्रकाशित करने में विश्‍वास करता हूं और सभी को प्रकाशित भी की है लेकिन कल एक बेनाम टिप्‍पणी को जानबूझकर रोक दिया। दूसरे ब्‍लॉगों पर भी देखता हूं बेनाम टिप्‍पणियां। जो बेनाम टिप्‍पणी मैंने प्रकाशन से रोकी वह यह थी :

कमल जी, कृपा करके ब्लॉग लिखें, इधर-उधर की सामग्री उठाकर दिन भर में दस-बीस पोस्ट ठोक देना कोई अच्छी बात नहीं है, यह आपकी आज़ादी का मामला भी नहीं है. मुझे ऐसा लिखने पर इसलिए मजबूर होना पड़ रहा है क्योंकि आपके इस अरचनात्मक लेखन की बाढ़ की वजह से अच्छी पोस्ट्स एक-एक करके नीचे से निकलती जाती है, अपने से बेहतर लिखने वालों की पोस्ट की असमय मृत्यु का पाप अपने सिर मत लीजिए. बाक़ी लोग भी नेट सर्फ़ करते हैं और आप जो परोस रहे हैं उसके लिए आपकी ज़रूरत नहीं है, वह यूँ ही उपलब्ध है. बुरा न मानिएगा और ध्यान से सोचिएगा.

मेरा निजी तौर पर मानना है कि जब हम लिखते हैं तो या टिप्‍पणी करते हैं और वह सच है, चाहे कितनी ही कड़वी हो या मीठी सीधे अपने नाम से लिखनी चा‍हिए। बेनाम का तो सीधा मतलब है कायर। टिप्‍पणी देते समय जो अच्‍छा लग रहा है वह लिख रहे हैं तो फिर बेनाम क्‍यों। हिम्‍मत होनी चाहिए अपना नाम बताने की। यह मत सोचिए बुरा लगेगा या अच्‍छा। सच्‍चा दोस्‍त वही है जो सच कहें अब चाहे कड़वी बात हो या मीठी। मैं सभी बेनामों से कहना चाहूंगा, अनुरोध करूंगा कि वे अपनी‍ टिप्‍पणी में नाम जरुर दें अन्‍यथा बेनाम टिप्‍पणी के प्रकाशन को रोकना बेहतर लगेगा। सभी ब्‍लॉगर मित्रों से अनुरोध है कि वे भी बेनामों की‍ टिप्‍पणियों को टिप्‍पणी पाने की लालसा में प्रकाशित न करें तो ठीक रहेगा।