August 18, 2014

चलते-चलते...भाग-तीन

18 अगस्‍त 2014
चलते-चलते...भाग-तीन
छिंदवाडा से आज पातालकोट एक्‍सप्रेस से इटारसी और फिर वहां से मध्‍य प्रदेश के दूसरे शहर खंडवा। शाम छह बजे तक खंडवा पहुंच जाऊंगा। खंडवा को लोग किशोर कुमार के गांव के रुप में जानते हैं। खंडवा शहर में 4 अगस्त 1929 को जन्म लेने वाले बॉलीवुड के नायक और गायक किशोर कुमार आज भी लोगों के दिलों में बसते हैं। यह शहर स्‍वतंत्रता आंदोलन में अहम योगदान देने वाले एवं हिंदी के महान पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी की कर्मस्‍थली रहा है जिनकी अहम रचना पुष्‍प की अभिलाषा जन जन के मन-मस्तिषक में आज भी रची बसी है।

मैंने तीसरी कक्षा में पढ़ी थी पुष्‍प की अभिलाषा और पर्वत की अभिलाषा। बचपन में जब स्‍कूल में कोई मौका होता पुष्‍प की अभिलाषा ही गा देता। यह रचना है ही ऐसी की एक बार यदि आपने पढ़ ली तो दिल में बस जाएगी। आज अधिकांश बच्‍चे गाना गाते रहते हैं, मैं बचपन में पुष्‍प की अभिलाषा गुनगुना लेता था। इसके साथ कई राष्‍ट्रीय लेखकों की दूसरी कविताएं भी जबान पर रहती थी। उस समय टीवी था ही नहीं और रेडियो भी मुश्किल से किसी घर में होता था तो पता ही नहीं चलता था कि फिल्‍मी गाने क्‍या बला है।

पुष्‍प की अभिलाषा
चाह नहीं मैं सुरबाला के, 
गहनों में गूँथा जाऊँ, 
चाह नहीं प्रेमी-माला में, 
बिंध प्यारी को ललचाऊँ, 
चाह नहीं, सम्राटों के शव, 
पर, हे हरि, डाला जाऊँ 
चाह नहीं, देवों के शिर पर, 
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ! 
मुझे तोड़ लेना वनमाली! 
उस पथ पर देना तुम फेंक, 
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने 
जिस पथ जाएँ वीर अनेक।

पर्वत की अभिलाषातू चाहे मुझको हरि, सोने का मढ़ा सुमेरु बनाना मत,
तू चाहे मेरी गोद खोद कर मणि-माणिक प्रकटाना मत,
तू मिट जाने तक भी मुझमें से ज्वालाएँ बरसाना मत,
लावण्य-लाड़िली वन-देवी का लीला क्षेत्र बनाना मत,
जगती-तल का मल धोने को
भू हरी-हरी कर देने को
गंगा-जमुनाएँ बहा सकूँ
यह देना, देर लगाना मत।


माखनलाल चतुर्वेदी जी को सभी दादा के नाम से जानते हैं। इनकी प्रकाशित कृतियां हैं: हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिणी, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, माता, वेणु लो गूँजे धरा, बीजुरी काजल आँज रही आदि इनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियां हैं। कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पाँव, अमीर इरादे :गरीब इरादे आदि आपकी प्रसिद्ध गद्यात्मक कृतियां हैं।

खंडवा शहर का प्राचीन नाम खांडववन (खांडव वन) था जो मुगलों और अंग्रेजों के आने से बोलचाल में धीरे धीरे खंडवा हो गया। यह कहा जाता है कि राम के वनवास के समय यहां सीता को प्यास लगी थी एवं राम ने यहां तीर मारकर एक कुआ बना दिया और उस कुए को रामेश्वर कुए के नाम से जाना जाता है जो खंडवा के रामेश्वर नगर में नवचंडी माता मंदिर के पास स्थित है। अतः खंडवा मान्यता अनुसार हजारों वर्ष पुराना है जिसका आधुनिक रूप वर्तमान खंडवा है। 12वीं शताब्दी में यह नगर जैन समुदाय का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहां मिलने वाले अवशेषों से यह सिद्ध होता है, इसके चारों ओर चार विशाल तालाब, नक़्क़ाशीदार स्तंभ और जैन मंदिरों के छज्जे थे।

मुंबई से भोपाल जाने पर खंडवा शहर कई बार आया लेकिन खंडवा जाने का पहला अवसर मुझे माखनलाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय, भोपाल की ओर से ही मिला। दादा के नाम पर स्‍थापित विश्‍वविद्यालय की ओर से खंडवापीठ में पत्रकारिता के विद्यार्थियों का उनके शोधपत्र पर साक्षात्‍कार करना था। इसके बाद दूसरी बार पिछले दिसंबर में ही खंडवा गया और अब तीसरी बार।

कृषि पैदावार में बात करें तो खंडवा कपास, टिम्‍बर, तिलहन और लाल मिर्च का बड़ा व्‍यापार केंद्र है। लाल मिर्च में एशिया की सबसे बड़ी मंडी आंध्र प्रदेश स्थित गुंटूर है लेकिन मध्‍य प्रदेश के निमाड़़ इलाके के किसान जिस तरह हर साल लाल मिर्च की पैदावार बढ़ा रहे हैं, उससे लगता है कि आने वाले समय में खंडवा शहर गुंटूर को पीछे छोड़ देगा।

खंडवा में मेरे एक अजीज पत्रकार मित्र संजय चौबे जी भी रहते हैं। भाई संजय से पहली मुलाकात हुई थी हरियाणा के शहर करनाल में। भारतीय जन संचार संस्‍थान (आईआईएमसी) से 1989 में पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद पहली नौकरी मिली थी विश्‍वमानव में। हिंदी का यह दैनिक अखबार कई शहरों से प्रकाशित होता था जिसमें मुझे करनाल भेजा गया। इस अखबार के समूह संपादक थे माधवकांत मिश्रा और स्‍थानीय संपादक थे बरेली के रहने वाले महेन्‍द्र मनुज। यद्यपि इस अखबार में मैं एक महीने ही रहा एवं जयपुर राजस्‍थान पत्रिका में आ गया। लेकिन एक महीने में यहां सभी का इतना स्‍नेह मिला एवं इतने दोस्‍त बने जो आज भी कायम है। इन दोस्‍तों में संजय चौबे जी भी शामिल थे, जो खंडवा के रहने वाले थे। हालांकि, बाद में 1992 में महाराष्‍ट्र के शहर औरंगाबाद से एक अखबार निकला देवगिरी समाचार। जहां मुझे करनाल के अपने सारे पत्रकार मित्रों को इकट्ठा करने का मौका मिला और हम यहां जुटे भी।

संजय चौबे जी को एक सप्‍ताह पहले बता दिया था कि खंडवा आ रहा हूं। उन्‍होंने हमेशा की तरह गर्मजोशी से कहा भैया आइए, आपका स्‍वागत है। अब दो दिन पहले फिर बात हुई तो पूछ लिया कब आ रहे हैं। सोमवार शाम तक पहुंच जाऊंगा और मिलते है शाम में ही। मैंने बहुत बरस पहले हिंदी की एक फिल्‍म देखी थी जो तंत्र मंत्र और होरर आधारित जैसी थी जिसमें एक जगह आता है नागमणि खंडवा के जंगलों में मिलेगी। हालांकि, मैं नागमणि की खोज में खंडवा नहीं जा रहा, मैं जा रहा हूं किसानों से मिलने जिन्‍होंने कपास की बोआई की है, जो हम देशवासियों का तन ढकने के लिए कपास पैदा कर रहे हैं।


August 15, 2014

चलते-चलते..भाग दो

15 अगस्‍त 2014
चलते-चलते...भाग दो
मुंबई से चला 5 अगस्‍त को आंध्र प्रदेश के शहर गुंटूर के लिए। वहां से आंध्र प्रदेश और उससे अलग होकर बने राज्‍य तेलंगाना के वरंगल, करीमनगर, हैदराबाद, अनंतपुर, कर्नूल और अदिलाबाद शहरों एवं इनसे सटे कई गांवों की यात्रा के बाद आज अदिलाबाद से रवाना हुआ महाराष्‍ट्र की उप राजधानी नागपुर के लिए। लेकिन नागपुर में रुकना नहीं है, वहां से सीधे मध्‍य प्र्रदेश के शहर छिंदवाड़ा निकल जाना है। उम्‍मीद है कि शाम सात बजे के करीब छिंदवाडा़ पहुंच जाऊंगा।
नागपुर से 14 जनवरी 1989 को हिंदी का एक अखबार शुरु हुआ था लोकमत समाचार। आज भी यह अखबार अपने क्षेत्र में अहम स्‍थान पर बना हुआ है। इस अखबार की संस्‍थापक टीम का सदस्‍य बनने का गौरव मुझे भी मिला। यहां उस समय संपादक थे एस एन विनोद जी। झारखंड एवं बिहार के प्रमुख हिंदी दैनिक अखबार प्रभात खबर के संस्‍थापक। हालांकि, अब इस अखबार का स्‍वामित्‍व ऊषा मार्टिन समूह के पास है। इस अखबार में जब मैंने ज्‍वाइनिंग की तो अनेक नए दोस्‍त बने, कुछ सीनियर थे लेकिन माहौल बेहद अच्‍छा और अपनापन तो इतना ज्‍यादा कि आज भी यदि इस अखबार के कार्यालय जाएं और पुराने साथी मिलते हैं तो प्रेमभाव जबरदस्‍त। यहां आने पर पुण्‍य प्रसून वाजेपयी, अनिल सिन्‍हा, सलिल सुधाकर, प्रकाश जी, जावेद जी हम साथ रहते थे, साउथ एवेन्‍यू की ओर सेवा सदन अपार्टमेंट में एक बड़ा फ्लैट दिया गया था लोकमत समूह की ओर से। दूसरा फ्लैट कुछ साथियों को मिला था लोकमत भवन के पीछे, जहां कमल पंकज जी, सत्‍येन्‍द्र सिंह एवं एक या दो और साथी रहते थे।
लोकमत समाचार और उसकी संस्‍थापक टीम के बारे में अपने इस यात्रानामा में कुछ समय बाद लिखूंगा लेकिन इस समय जो उल्‍लेख किया है, वह इसलिए कि छिंदवाडा में उस समय के हमारे साथी कमल पंकज इंतजार कर रहे हैं। पंकज जी कुछ साल बाद छिंदवाडा ही जा बसे और संभवत: अब वहीं के हो गए। उनको मैंने फोन किया कि पंकज जी छिंदवाडा आ रहा हूं। पंकज जी ने गर्मजोशी के साथ कहा आइए मोस्‍ट वैलकम। इंतजार करुंगा। आप नागपुर से आ रहे हैं तो अपना समय बताइए, गाड़ी आपको लेने भिजवा देता हूं। आराम से आ जाएंगे। उस समय तो मैंने हां कह दिया लेकिन बाद में तय किया कि आम जन वाहन से खुद ही छिंदवाडा चला जाऊंगा। कल दोपहर पंकज जी का फिर फोन आया कि कब पहुंच रहे हैं। मैंने कहा कि सीधे छिंदवाडा आ जाऊंगा। आप नागपुर कार भिजवाने का कष्‍ट ना करें। उन्‍होंने काफी आग्रह किया लेकिन मैंने कहा कि मैं पहुंच जाऊंगा तब पंकज जी ने कहा जैसी आपकी मर्जी। देश के कई हिस्‍सों में घूमने का काफी मौका मिला मुझे लेकिन छिंदवाडा पहली बार जा रहा हूं। नागपुर रहते हुए भी वहां नहीं गया था। इस बीच, लोकमत समाचार के मेरे प्रिय साथी जीवंत शरण जी से चर्चा हुई कि छिंदवाडा जा रहा हूं लेकिन नागपुर रुकूंगा नहीं, बाद में आता हूं वहां। नागपुर जाना होता है तो रुकने का कार्यक्रम भी जीवंत जी के घर ही होता है। नागपुर आने का जरा सा जिक्र छिड़ जाएं तो उससे पहले ही जीवंत जी कह देते हैं कि सीधे घर चले आना बेझिझक। और अब तो नागपुर कभी भी जाना हो तो खुद ही पहले फोन उठाते ही जीवंत जी को कह देता हूं घर आ रहा हूं। तब वे कहते हैं आइए ना भाई आपका ही घर है।
जीवंत जी ने बताया कि छिंदवाडा आप अपने आफिस कार्य के अलावा थोड़ा समय पातालकोट देखने के लिए जरुर निकालिएं। क्‍या पता फिर छिंदवाडा जाना हो या ना हो। उन्‍होंने बताया कि हम बचपन में सुना करते थे ना कि जमीन के नीचे पाताल लोक है, जहां बौने बौने लोग रहते हैं, बौने पशु और उससे जुड़ी दादी-मां की कहानियां। पाताल लोक को लेकर कई कहानियां-किस्‍से। बस वही पाताल लोक छिंदवाडा में है। काफी गहराई पर होने से ऊपर से देखने में सब कुछ बौना लगता है और यही है वह जगह। उन्‍होंने बताया कि सबसे पहले कमलनाथ इस जगह गए और तब पता चला कि यह धरती ही है, पाताल नहीं और रहस्‍य खुला कि काफी ऊंचाई से देखने की वजह से सब बौना लगता है, असल में ये आदिवासी लोग है और सब कुछ हमारी तरह का ही है। मैंने अदिलाबाद रेलवे स्‍टेशन पर ट्रेन के आने का इंतजार करते हुए गुगल में पाताल कोट को लेकर खोजा और काफी सामग्री मिली भी। पाताल कोट के बारे में इसी सामग्री से साभार लेकर कुछ बातें आपके लिए भी। उत्‍सुकता तो होती है जब हम पृथ्‍वी लोक के अलावा अन्‍य किसी लोक की चर्चा करते हैं तो..छिंदवाडा से 62 किलोमीटर एवं तामिया विकास खंड से महज 23 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है पातालकोट। समुद्र सतह से 3250 फुट ऊंचाई पर एवं भूतल से 1000 से 1700 फुट गराई में यह कोट यानि “पातालकोट” स्थित है। हमारे पुरा आख्यानों में “पातालकोट” का जिक्र बार-बार आया है। लंका नरेश रावण का एक भाई, जिसे अहिरावण के नाम से जाना जाता था, के बारे में पढ़ चुके हैं कि वह पाताल में रहता था। राम-रावण युद्ध के समय उसने राम और लक्ष्मण को सोता हुआ उठाकर पाताल लोक ले गया था, और उनकी बलि चढाना चाहता था, ताकि युद्ध हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाए। इस बात का पता जैसे ही वीर हनुमान को लगता है वे पाताल लोक जा पहुंचते हैं। दोनों के बीच भयंकर युद्ध होता है और अहिरावण मारा जाता है। उसके मारे जाने पर हनुमान उन्हें पुनः युद्धभूमि पर ले आते हैं।
एक खोज के अनुसार पातालकोट की तलहटी में करीब 20 गांव सांस लेते थे, लेकिन प्राकृतिक प्रकोप की वजह से वर्तमान समय में अब केवल 12 गांव ही शेष बचे हैं। एक गांव में 4-5 अथवा सात-आठ से ज्यादा घर नहीं होते। जो बारह गांव हैं, उनके नाम इस प्रकार है-रातेड, चमटीपुर, गुंजाडोंगरी, सहरा, पचगोल, हरकिछार, सूखाभांड, घुरनीमालनी, झिरनपलानी, गैलडुब्बा, घटनलिंग, गुढीछातरी एवं घाना। नागपुर के राजा रघुजी ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों से तंग आकर मोर्चा खोल दिया था, लेकिन विपरीत परिस्थितियां देखकर उन्होंने इस गुफ़ा को अपनी शरण-स्थली बनाया था, तभी से इस खोह का नाम “राजाखोह” पडा। राजाखोह के समीप गायनी नदी अपने पूरे वेग के साथ चट्टानों को काटती हुई बहती है।

August 5, 2014

चलते-चलते...भाग एक

5 अगस्‍त 2014
चलते-चलते...भाग एक

बचपन में लोगों को कहते सुना था कि पैर के तलवे में तिल हो तो आदमी जिंदगी भर एक जगह टिककर नहीं रह सकता यानी हमेशा घूमते फिरते ही रहेगा अथवा भटकते ही रहेगा लेकिन यह सकारात्‍मक रुप से कहा जाता है यानी उसकी जिंदगी का बड़ा हिस्‍सा घूमने में ही बीत जाएगा। मेरे साथ यही हुआ। छोटेपन से ही सफर ही सफर। रेल का सफर, बस की मुसाफिरी, हवाई यात्राएं। हर साल कई किलोमीटर की यात्रा तो हो ही जाती है। लेकिन अपने यात्रानामा को लिखने की पहली बार सोची। अपनी इस यात्रानाम को नाम दे रहा हूं चलते-चलते।

आज 5 अगस्‍त 2014 को मुंबई से यात्रा शुरु कर रहा हूं आंध्र प्रदेश के गुंटूर शहर की। हालांकि, गुंटूर जाकर ही नहीं आ जाना है, बल्कि वहां से असल यात्रा शुरु होगी। गुंटूर से विजयवाडा, वरंगल, करीमनगर, अदिलाबाद...फिर मध्‍य प्रदेश के छिंदवाडा..जहां से भोपाल, इंदौर, सेधवा, सनावद, धामनोद, खरगौन, खंडवा, बुरहानपुर होते हुए महाराष्‍ट्र के मलकापुर, अकोला, नागपुर, यवतमाल, औरंगाबाद, जलगांव। इन कस्‍बों या शहरों में ही नहीं जाना है बल्कि इनके आसपास के उन गांवों में भी जाना है जहां किसानों ने कपास बोई है। पिछले साल मैं हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्‍ट्र, मध्‍यप्रदेश और आंध्र प्रदेश के उन इलाकों मे गया था जहां कपास की आवक होती है लेकिन मुलाकात हुई थी, कॉटन ब्रोकरों से, जीनिंग-‍स्पिनिंग मिल चलाने वालों से, कपड़ा मिल वालों से। लेकिन इस बार तय किया कि किसानों से सीधे मिला जाए और उनसे कपास फसल का पूरा लेखा जोखा लिया जाए। लोग धर्म तीर्थों की यात्रा करते हैं लेकिन मुझे लगता है कि इस देश का किसान असली देवता है, जो 125 करोड़ हिंदुस्‍तानियों का पेट पालता है, उनके शरीर कपड़े से ढकता है। इसीलिए हम हिंदुस्‍तानी किसान को अन्‍नदेवता तक कहते हैं।

आंध्र प्रदेश के गुंटूर शहर मैं दिसंबर 2013 में गया भी था जलगांव से महाराष्‍ट्र कवर करते हुए और अब आठ महीने बाद फिर से जा रहा हूं। उस समय गुंटूर संयुक्‍त आंध्र प्रदेश के साथ था लेकिन तेलंगाना राज्‍य के निर्माण के बाद गुंटर पहली बार जाना हो रहा है। गुंटूर असल में लाल मिर्च की एशिया की सबसे बड़ी मंडी है और दुनिया भर की विख्‍यात लाल मिर्च मंडियों में भी इसका अहम स्‍थान है। गुंटूर से समूचे भारत को लाल मिर्च की आपूर्ति नहीं होती बल्कि बांग्‍लादेश, मलेशिया, श्रीलंका, पाकिस्‍तान और चीन भी गुंटूर की लाल मिर्च का स्‍वाद चखते हैं। गुंटूर उड़द और कपास की फसल के लिए भी प्रसिद्ध है लेकिन ज्‍यादातर लोग लाल मिर्च के लिए ही गुंटूर को जानते हैं।

मुंबई से ट्रेन ली मैंने कोणार्क एक्‍सप्रेस ट्रेन नंबर 11019. जो मुंबई से उड़ीसा की राजधानी भुवेनश्‍वर जाती है। मैं कल यानी 6 अगस्‍त 2014 को दोपहर दो बजे के करीब विजयवाड़ा उतर जाऊंगा क्‍योंकि वहां से यह ट्रेन राजामुंदरी होते हुए भुवनेश्‍वर की ओर बढ़ेगी जबकि मैं विजयवाडा से नॉन स्‍टॉप बस से गुंटूर एक से डेढ़ घंटे में पहुंच जाऊंगा। आज जिस बर्थ पर मैं हूं, कल दोपहर बाद उस पर कोई दूसरा यात्री आ जाएगा।  

कोणार्क एक्‍सप्रेस में मुंबई से यह मेरी तीसरी बार यात्रा है। पहली बार जगन्‍नाथपुरी में भगवान जगन्‍नाथ के दर्शन करने, पुरी का समुद्र तट देखने और विख्‍यात कोणार्क मंदिर देख्‍ने के लिए ही इस ट्रेन से सफर तय किया था। दूसरी बार पिछले साल वरंगल इसी ट्रेन से गया और आज फिर विजयवाड़ा तक यह ट्रेन। असल में कोणार्क एक्‍सप्रेस साफ सुथरी और समय पर चलने वाली ट्रेन मानी जाती है और मुझे कोणार्क नाम लुभाता भी है। कोणार्क सूर्य मंदिर के नाम से प्रसिद्ध इस ट्रेन की कहानी छोड़ मैं आपको यह बताना चाहूंगा कि कोणार्क के विश्‍व प्रसिद्ध सूर्य मंदिर में कभी कोई पूजा अर्चना नहीं हुई। जब मैं स्‍वयं पहली बार इस सूर्य मंदिर में गया था तो वहां सूर्य देव के आगे श्रद्धावश हाथ जोड़े एवं इस अदभुत मंदिर को निहारा। अदभुत है यह मंदिर। मंदिर के बाहर बायीं ओर, नवग्रह का मंदिर हैं जहां आकर मैंने पूजा अर्चना की। कोणार्क मंदिर आने वाले इस नवग्रह मंदिर में जरुर जाते हैं।


कोणार्क का सूर्य मंदिर लगभग पूरा बन गया था और कला की दृष्टि से यह अदभुत है और इसे देख्‍ने वाला दांतो तले इसकी कला को देख अंगुली दबा लेता है। इस मंदिर में पूजा अर्चना ना होने की एक वजह रही, प्राण प्रतिष्‍ठा से पहले ही इसका अपवित्र हो जाना। मुख्‍य मंदिर का ऊपरी कलश राजमिस्‍त्री और उनके साथियों से स्‍थापित नहीं हो रहा था। जबकि, राजा का हुक्‍म था कि इसे जल्‍दी स्‍थापित किया जाए अन्‍यथा सजा दी जाएगी। इस बीच, इस राजमिस्‍त्री का बेटा थोड़ा बड़ा हुआ तो उसने अपनी मां से अपने पिता के बारे में पूछा जो उसके जन्‍म पश्‍चात कोणार्क मंदिर को बनाने के‍ लिए घर से जा चुके थे। बेटे ने जिद पकड़ी की वह अपने पिता से मिलने जाएगा लेकिन एक समस्‍या बच्‍चे के सामने यह आई की कि उसके पिता उसे पहचानेंगे कैसे। बेटे ने यह बात अपनी मां को बताई तो मां ने कहा कि घर के पिछवाड़े जो बेर का पेड़ है तु उसके बेर ले जा, तेरे पिता तुझे पहचान लेगे। बेटा बेर लेकर कोणार्क आ गया और पिता-पूत्र का मिलन हुआ। लेकिन अपने पिता को परेशान देख बेटे ने समस्‍या पूछी जब पिता ने बताया कि वे मुख्‍य मंदिर का कलश नहीं बैठा पा रहे हैं तो बेटे ने कहा कि पिताजी आपकी यह समस्‍या दूर हो जाएगी। देर रात बेटे ने मंदिर का कलश बैठा दिया और यह पता नहीं चले कि राजमिस्‍त्री इस काम में विफल रहा, बेटे ने मंदिर के पीछे बह रही नदी में कूदकर अपनी जान दे दी। लेकिन यह बात छिपी नहीं रही और पता चल गई जिसके बाद इस मंदिर को अपवित्र मान लिया गया एवं कोणार्क के इस भव्‍य सूर्य मंदिर में कभी पूजा अर्चना नहीं हुई। चलिए यह तो बात हुई.;कोणार्क मंदिर की। अब कोणार्क एक्‍सप्रेस ने लोनावाला को पार कर लिया है धान  यानी पेडी के छोटे-छोटे खेतों के साथ साथ दौड़ते हुए और ट्रेन में लोनावाला की चिकी, चाय, टमाटो सूप, चाय, कोल्‍डड्रिक बेचने वालों का तांता लग गया है। ऐसा लग रहा है जैसे शाम के समय किसी हाट बाजार में पहुंच गया हूं।---कमल शर्मा

November 8, 2009

वंदे मातरम् विरोधी दारुल उलम के लोगों भारत छोड़ो

इस्‍लामिक धर्म संस्‍था दारुल उलम ने हाल में फतवा जारी कर मुस्लिमों से वंदे मातरम् न गाने को कहा है। इस संस्‍था ने योग गुरु बाबा रामदेव के योग शिबिरों में मुस्लिमों को इसलिए जाने से मना किया है कि इन शिबिरों में दिनचर्या की शुरुआत वंदे मातरम् से होती है। वंदे मातरम् पर हाल के फतवे में केंद्रीय गृहमत्री पी चिदम्‍बरम तक को घसीटा गया कि उनकी हाजिरी में यह फतवा जारी किया गया, लेकिन गृहमंत्री के कार्यालय से यह बयान आया कि चिदम्‍बरम की हाजिरी में ऐसा कोई फतवा जारी नहीं हुआ था। यह संस्‍था चाहती क्‍या है?

कल तो यह संस्‍था प्रधानमंत्री को बुलाएगी और कह देगी कि हमने देश का एक और विभाजन करने का प्रस्‍ताव प्रधानमंत्री की हाजिरी में पारित किया था, लाओं एक और टुकड़ा दो। दारुल उलम के नए फतवे का शिवसेना और भाजपा ने परंपरागत रुप से विरोध किया है। लेकिन मैं दारुल उलम के पदाधिकारियों और खासकर फतवा विभाग के उप प्रमुख मुफ्ती अहसान से यह पूछना चाहता हूं कि यदि वे इस देश की इज्‍जत नहीं कर सकते तो पाकिस्‍तान क्‍यों नहीं चले जाते। अथवा किसी ऐसे इस्‍लामिक राष्‍ट्र में जाकर रहे जहां वे अपनी मनमानी कर सकें। लेकिन ये लोग ऐसा कभी नहीं कर पाएंगे।

असल में राष्‍ट्रविरोधी मुसलमान इस देश के हैं भी नहीं, इब्राहिम लोदी, बाबर, चंगेज खान, मोहम्‍मद गौरी या गजनी कोई भी हो...सभी दूसरे देश की धरती से भारत आए और लूटकर चले गए। यहां शासन किया, हिंदूओं को जबरन मुसलमान बनाया। ऐसे राष्‍ट्रविरोधियों को हिंदुस्‍तान या वंदे मातरम् से प्‍यार क्‍यों होगा। क्‍या मुसलमान अपनी मां की इज्‍जत नहीं करते? जो कह रहे हैं कि हम अल्‍लाह के अलावा किसी और की प्रार्थना नहीं कर सकते? यदि अपनी सगी मां की इज्‍जत कर सकते हो तो देश भी मां है उसकी इज्‍जत करने में इतराज क्‍या है? इस्‍लाम में कहां लिखा है कि वंदे मारतम् से खुदा नाराज हो जाएगा, वह तुम्‍हें जहन्‍नुम में डाल देगा? बताओं कहां लिखा है। मूर्ख राष्‍ट्रविरोधियों पढ़ो वंदे मातरम् क्‍या कहता है जबकि इसकी तुलना में दूसरे देशों के राष्‍ट्रगीत तो अपने विरोधियों से बदला लेना ही सीखाते हैं जबकि वंदे मातरम् शांति प्रिय राष्‍ट्रगान है।

वंदे मातरम् तो मातृप्रेम का गीत है, लेकिन विश्‍व के अनेक देशों के राष्‍ट्रगीत तो ऐसे हैं जिनसे दूसरे देशों की जनता को काफी ठेस पहुंचती है। ये देश दूसरे देश के अपमान या मानहानि के बजाय स्‍वयं के देश की प्रजा के स्‍वाभिमान, अभिमान और गुमान की ही पहली चिंता करते हैं। लेकिन हमारी बात अलग है। भारत ने सदैव विश्‍वशांति को प्राथमिकता दी है। देश के पहले राष्‍ट्रपति डॉ राजेन्‍द्र प्रसाद भी चाहते थे कि संसद की कार्यवाही वंदे मातरम् के गायन से हो, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।

छोटे छोटे देशों के राष्‍ट्रगीत भी अनेक बार क्रूर और हिंसक होते हैं। इन्‍हें आततायियों और शत्रु को फटकार लगाने के लिए लिखा गया है। छोटे से देश डेनमार्क का उदाहरण लें। डेनमार्क के राष्‍ट्रगीत में एक लाइन है जो राजा क्रिश्‍टीएन के वीरत्‍व को उकसाती है। उनकी तलवार इतनी तेज चलती थी, शत्रु के कलेजे और सिर को एक साथ काट फेंकती थी। मध्‍य अमरीकी देश ग्‍वाटेमाला के राष्‍ट्रगीत में एक लाइन है-किसी आततायी को तेरे चेहरे पर नहीं थूकने दूंगा ! बल्‍गारिया के राष्‍ट्रगीत में भी आहूति की बात कही गई है। बेशुमार योद्धाओं को बहादुरी से मारा है-जनता के पवित्र उद्देश्‍य के लिए। चीन के राष्‍ट्रगीत में खून से सनी एक लाइन है -हमारे मांस और खून का ढ़ेर लगा देंगे-फिर से एक नई महान चीन की दीवार बनाने के लिए....।

अमरीका में मेरीलैंड नामक एक राज्‍य है। इस राज्‍य का भी राज्‍यगीत या राष्‍ट्रगीत है, जो वीरत्‍व से भरा पड़ा है, इसमें शब्‍द हैं कि- बाल्टिमोर की सड़कों पर फैला हुआ है देशभक्‍तों का नुचा हुआ मांस- इसका बदला लेना है साथियों...! इन सभी की तुलना में सुजलां, सुफलां मलयज शीतलाम् अथवा मीठे जल, मीठे फल और ठंडी हवा की धरती जैसे विचारों का विरोध हो रहा है। यह कितना साम्‍प्रदायिक लग रहा है?ब्रिटेन का राष्‍ट्रगीत ‘गॉड सेव द क्विन (या किंग)’ को 19वीं सदी की शुरूआत में स्‍वीकृति मिली। वर्ष 1745 में इसे पहली बार सार्वजनिक तौर पर गाया गया, लेकिन इसकी रचना किसने की, किसने संगीत दिया इस विषय में जरा अस्‍पष्‍टता है। लेकिन इससे पूर्व जिस गीत ने राष्‍ट्रगीत का दर्जा पाया, वह कैसे भाव व्‍यक्‍त करता है ? रुल ब्रिटानिया, रुल दि वेव्‍ज/ब्रिटंस नेवर शेल बी स्‍लेव्‍ज (देवी ब्रिटानिया राज करेगी, समुद्रों पर राज करेगी, ब्रिटिश कभी गुलाम नहीं बनेंगे) इस गीत में आगे है- तेरे नगर व्‍यापार से चमकेंगे/हरेक किनारे पर तेरी शोभा होगी....।

बेल्जियम का राष्‍ट्रगीत ‘ब्रेबेनकॉन’ था। जिसे एक फ्रेंच कामेडियन ने लिखा था। इस गीत में डच प्रजा के खिलाफ विष उगला गया था। इसके शब्‍दों में तीन बार संशोधन करना पड़ा। वर्ष 1984 में आस्‍ट्रेलिया ने ‘एडवांस आस्‍ट्रेलिया फॉर’ राष्‍ट्रगीत निश्चित किया। रुस का राष्‍ट्रगीत ‘जिन सोवियत स्‍कोगो सोयूजा’ (सोवियत संघ की प्रार्थना) 1944 में स्‍वीकार किया गया और 1814 में अमरीका ने फ्रांसीस स्‍कॉट नामक कवि के ‘स्‍टार स्‍पेंगल्‍ड बेनर’ राष्‍ट्रगीत के रुप में स्‍वीकार किया। इससे पूर्व रुस ने ‘इंटरनेशनल’ को राष्‍ट्रगीत माना था।

इजरायल का राष्‍ट्रगीत ‘हा-निकवा’ केवल इतना ही है। दिल के अंदर गहरे गहरे तक/ यहूदी की आत्‍मा को प्‍यास है/ पूर्व की दिशा/ एक आखं जायोन देख रही है/ अभी हमारी आशाएं बुझी नहीं हैं/ दो हजार वर्ष पुरानी हमारी आशा/ हमारी धरती पर आजाद प्रजा होने की आशा/ जायोन की धरती और येरुश्‍लम...। फ्रांस का राष्‍ट्रगीत ‘लॉ मार्सेस’ विश्‍व के सर्वाधिक प्रसद्धि राष्‍ट्रगीतों में एक है। वर्ष 1792 में फौज के इंजीनियर कैप्‍टन कलोड जोजफ रुज दि लिजले ने अप्रैल महीने की एक रात यह गीत लिखा और इसके बाद इतिहास में हजारों फ्रांसीसियों ने इस गीत के पीछे अपने को शहीद कर दिया। बहुचर्चित इस राष्‍ट्रगीत की दो लाइनें इस प्रकार है अपने ऊपर जुल्‍मगारों का रक्‍तरंजित खंजर लहरहा है। तुम्‍हें सुनाई देता है अपनी भूमि पर से कूच करके आते भयानक सैनिकों की गर्जनाएं..?...साथी नागरिकों ! उठाओं शस्‍त्र, बनाओं सेना/ मार्च ऑन, मार्च ऑन/ दुशमनों के कलुषित रक्‍त से अपनी धरती को गीली कर दो...। फ्रांस के इस राष्‍ट्रगीत की इन दो पक्तिंयों की चर्चा समय असयम फ्रांस और उसके पड़ौसी देशों में होती रहती है। अभी इन दो पक्तियों की बजाय जो नई दो पंक्तियां सुझाई गई है वे थीं स्‍वाधीनता, प्रियतम स्‍वाधीनता/ शत्रु के किले टूट गए हैं/फ्रेंच बना, अहा, क्‍या किस्‍मत है/ अपने ध्‍वज पर गर्व है.../ नागरिकों, साथियों/ हाथ मिलाकर हम मार्च करें/ गाओं, गाते रहो/ कि जिसने अपनी गीत/ सभी तोपों को शांत कर दें..लेकिन फ्रांस की जनता ने इस संशोधन को स्‍वीकार नहीं किया। मूल पंक्तियों मे जो खुन्‍नस थी, जो कुर्बानी भाव था वह इनमें नहीं था। आज भी पुरानी पंक्तियां ज्‍यों की त्‍यों हैं और फ्रांसीसी फौजी टुकडि़यां इन्‍हें गाते गाते कूच करती हैं।

शायद सर्वाधिक विवादास्‍पद राष्‍ट्रगीत जर्मनी का ‘डोईशलैंड युबर एलिस’ है। जर्मनी के कितने ही राज्‍य पूरे गीत को राष्‍ट्रगीत के रुप में मानते थे। हिटलर के जमाने में भी यही राष्‍ट्रगीत था। लेकिन 1952 से जर्मनी ने तय किया कि केवल तीसरा पैरा ही राष्‍ट्रगीत रहेगा। जर्मनी के राष्‍ट्रगीत का पहला पैरा इस प्रकार है जर्मनी, जर्मनी सभी से ऊपर/जगत में सबसे ऊपर/ रक्षा और प्रतिरक्षा की बात आए तब/ कंधे मिलाकर खड़े रहना साथियों/मियुज से मेमेल तक/ एडीज से बेल्‍ट तक/जर्मनी, जर्मनी सभी से ऊपर/जगत में सबसे ऊपर... यह गीत जबरदस्‍त चर्चा का विषय बने यह स्‍वाभाविक है, आज मियुज नदी फ्रांस और बेल्जियम में बहती है। बेल्‍ट डेनमार्क में है और एडीज इटली में है। जर्मनी के इस राष्‍ट्रगीत में पूरे जर्मनी की सीमाओं के विषय में बताया गया है। कितने ही लोगों के अनुसार यह ग्रेटर जर्मनी है और इसमें से उपनिवेशवाद की बू आती है जबकि जर्मनी की ऐसी कोई दूषित भावना नहीं है। जहां फ्रांस में पंक्तियां बदलने की चर्चा होती है, वहां जर्मनी में ऐसा कुछ नहीं है। केवल जर्मनी ने ही राष्‍ट्रगीत के रुप में अहिंसक तीसरे पैरे को राष्‍ट्रगीत राष्‍ट्रगीत में स्‍वीकार किया है। इटली में भी 1986 में एक आंदोलन हुआ था। वहां राष्‍ट्रगीत जरा कमजोर महसूस किया जा रहा था। जनमत का कहना था कि संगीतज्ञ बर्डी के बजाय तेजतर्रार देशभक्ति वाले का गीत राष्‍ट्रगीत होना चाहिए। राष्‍ट्रगीत चर्चा में आए इससे चिंता नहीं करनी चाहिए।

प्रत्‍येक देश के राष्‍ट्रगीत में स्‍वाभिमान, गर्व होता है, राष्‍ट्रध्‍वज और राष्‍ट्रगीत ही ऐसी प्रेरणा होती है जिसके लिए सारी की सारी पीढि़यां सर्वस्‍व न्‍यौछावर कर देती हैं। भारत में फांसी पर चढ़ने वाले क्रांतिकारियों के अंतिम शब्‍द होते थे ‘वंदे मातरम्...!...’

December 8, 2008

एक वोट ने दिन में दिखा दिए तारे

यदि देश के किसी नेता को यह पूछा जाए कि उसे चुनाव में केवल एक वोट अधिक न मिले तो क्‍या होगा, शायद पहली नजर में वह इसे नजरअंदाज कर दें और कह भी दें कि एक वोट उसे न मिला तो भी चलेगा क्‍योंकि वह बड़े अंतर से जीत का माद्दा रखता है। लेकिन यही बात यदि राजस्‍थान कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सी पी जोशी से कोई पूछे कि एक वोट की कीमत क्‍या होती है। इस सवाल का जवाब जोशी से बेहतर शायद ही कोई नेता दे पाएगा जिसने उन्‍हें न केवल राज्य का मुख्‍यमंत्री बनने से अटका दिया बल्कि विधानसभा में बैठने से ही रोक दिया। राजसमंद जिले की नाथद्वारा सीट से जोशी चुनाव हार गए हैं। जोशी मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में शुमार थे। वे काफी दुर्भाग्यशाली रहे। वे केवल एक वोट से चुनाव हारे हैं। जोशी को भाजपा के कल्याण सिंह ने हराया। कल्याण को 62 हजार 216 वोट मिले। जबकि सी पी जोशी को 62 हजार 215 वोट ही मिल पाए। देश के सारे नेता इससे सबक लेंगे कि एक वोट ही उनको दिन में तारे दिखाने के लिए खूब है।