5 अगस्त 2014
चलते-चलते...भाग एक
बचपन में लोगों को कहते सुना था कि
पैर के तलवे में तिल हो तो आदमी जिंदगी भर एक जगह टिककर नहीं रह सकता यानी हमेशा
घूमते फिरते ही रहेगा अथवा भटकते ही रहेगा लेकिन यह सकारात्मक रुप से कहा जाता है
यानी उसकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा घूमने में ही बीत जाएगा। मेरे साथ यही हुआ। छोटेपन
से ही सफर ही सफर। रेल का सफर, बस की मुसाफिरी, हवाई यात्राएं। हर साल कई किलोमीटर
की यात्रा तो हो ही जाती है। लेकिन अपने यात्रानामा को लिखने की पहली बार सोची।
अपनी इस यात्रानाम को नाम दे रहा हूं चलते-चलते।
आज 5 अगस्त 2014 को मुंबई से यात्रा
शुरु कर रहा हूं आंध्र प्रदेश के गुंटूर शहर की। हालांकि, गुंटूर जाकर ही नहीं आ
जाना है, बल्कि वहां से असल यात्रा शुरु होगी। गुंटूर से विजयवाडा, वरंगल,
करीमनगर, अदिलाबाद...फिर मध्य प्रदेश के छिंदवाडा..जहां से भोपाल, इंदौर, सेधवा,
सनावद, धामनोद, खरगौन, खंडवा, बुरहानपुर होते हुए महाराष्ट्र के मलकापुर, अकोला,
नागपुर, यवतमाल, औरंगाबाद, जलगांव। इन कस्बों या शहरों में ही नहीं जाना है बल्कि
इनके आसपास के उन गांवों में भी जाना है जहां किसानों ने कपास बोई है। पिछले साल मैं
हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और आंध्र प्रदेश के उन इलाकों
मे गया था जहां कपास की आवक होती है लेकिन मुलाकात हुई थी, कॉटन ब्रोकरों से, जीनिंग-स्पिनिंग
मिल चलाने वालों से, कपड़ा मिल वालों से। लेकिन इस बार तय किया कि किसानों से सीधे
मिला जाए और उनसे कपास फसल का पूरा लेखा जोखा लिया जाए। लोग धर्म तीर्थों की
यात्रा करते हैं लेकिन मुझे लगता है कि इस देश का किसान असली देवता है, जो 125
करोड़ हिंदुस्तानियों का पेट पालता है, उनके शरीर कपड़े से ढकता है। इसीलिए हम
हिंदुस्तानी किसान को अन्नदेवता तक कहते हैं।
आंध्र प्रदेश के गुंटूर शहर मैं दिसंबर
2013 में गया भी था जलगांव से महाराष्ट्र कवर करते हुए और अब आठ महीने बाद फिर से
जा रहा हूं। उस समय गुंटूर संयुक्त आंध्र प्रदेश के साथ था लेकिन तेलंगाना राज्य
के निर्माण के बाद गुंटर पहली बार जाना हो रहा है। गुंटूर असल में लाल मिर्च की
एशिया की सबसे बड़ी मंडी है और दुनिया भर की विख्यात लाल मिर्च मंडियों में भी
इसका अहम स्थान है। गुंटूर से समूचे भारत को लाल मिर्च की आपूर्ति नहीं होती
बल्कि बांग्लादेश, मलेशिया, श्रीलंका, पाकिस्तान और चीन भी गुंटूर की लाल मिर्च
का स्वाद चखते हैं। गुंटूर उड़द और कपास की फसल के लिए भी प्रसिद्ध है लेकिन ज्यादातर
लोग लाल मिर्च के लिए ही गुंटूर को जानते हैं।
मुंबई से ट्रेन ली मैंने कोणार्क एक्सप्रेस
ट्रेन नंबर 11019. जो मुंबई से उड़ीसा की राजधानी भुवेनश्वर जाती है। मैं कल यानी
6 अगस्त 2014 को दोपहर दो बजे के करीब विजयवाड़ा उतर जाऊंगा क्योंकि वहां से यह
ट्रेन राजामुंदरी होते हुए भुवनेश्वर की ओर बढ़ेगी जबकि मैं विजयवाडा से नॉन स्टॉप
बस से गुंटूर एक से डेढ़ घंटे में पहुंच जाऊंगा। आज जिस बर्थ पर मैं हूं, कल दोपहर
बाद उस पर कोई दूसरा यात्री आ जाएगा।
कोणार्क एक्सप्रेस में मुंबई से यह
मेरी तीसरी बार यात्रा है। पहली बार जगन्नाथपुरी में भगवान जगन्नाथ के दर्शन
करने, पुरी का समुद्र तट देखने और विख्यात कोणार्क मंदिर देख्ने के लिए ही इस
ट्रेन से सफर तय किया था। दूसरी बार पिछले साल वरंगल इसी ट्रेन से गया और आज फिर
विजयवाड़ा तक यह ट्रेन। असल में कोणार्क एक्सप्रेस साफ सुथरी और समय पर चलने वाली
ट्रेन मानी जाती है और मुझे कोणार्क नाम लुभाता भी है। कोणार्क सूर्य मंदिर के नाम
से प्रसिद्ध इस ट्रेन की कहानी छोड़ मैं आपको यह बताना चाहूंगा कि कोणार्क के विश्व
प्रसिद्ध सूर्य मंदिर में कभी कोई पूजा अर्चना नहीं हुई। जब मैं स्वयं पहली बार
इस सूर्य मंदिर में गया था तो वहां सूर्य देव के आगे श्रद्धावश हाथ जोड़े एवं इस
अदभुत मंदिर को निहारा। अदभुत है यह मंदिर। मंदिर के बाहर बायीं ओर, नवग्रह का
मंदिर हैं जहां आकर मैंने पूजा अर्चना की। कोणार्क मंदिर आने वाले इस नवग्रह मंदिर
में जरुर जाते हैं।
कोणार्क का सूर्य मंदिर लगभग पूरा बन
गया था और कला की दृष्टि से यह अदभुत है और इसे देख्ने वाला दांतो तले इसकी कला
को देख अंगुली दबा लेता है। इस मंदिर में पूजा अर्चना ना होने की एक वजह रही,
प्राण प्रतिष्ठा से पहले ही इसका अपवित्र हो जाना। मुख्य मंदिर का ऊपरी कलश
राजमिस्त्री और उनके साथियों से स्थापित नहीं हो रहा था। जबकि, राजा का हुक्म
था कि इसे जल्दी स्थापित किया जाए अन्यथा सजा दी जाएगी। इस बीच, इस राजमिस्त्री
का बेटा थोड़ा बड़ा हुआ तो उसने अपनी मां से अपने पिता के बारे में पूछा जो उसके
जन्म पश्चात कोणार्क मंदिर को बनाने के लिए घर से जा चुके थे। बेटे ने जिद
पकड़ी की वह अपने पिता से मिलने जाएगा लेकिन एक समस्या बच्चे के सामने यह आई की
कि उसके पिता उसे पहचानेंगे कैसे। बेटे ने यह बात अपनी मां को बताई तो मां ने कहा
कि घर के पिछवाड़े जो बेर का पेड़ है तु उसके बेर ले जा, तेरे पिता तुझे पहचान
लेगे। बेटा बेर लेकर कोणार्क आ गया और पिता-पूत्र का मिलन हुआ। लेकिन अपने पिता को
परेशान देख बेटे ने समस्या पूछी जब पिता ने बताया कि वे मुख्य मंदिर का कलश नहीं
बैठा पा रहे हैं तो बेटे ने कहा कि पिताजी आपकी यह समस्या दूर हो जाएगी। देर रात बेटे
ने मंदिर का कलश बैठा दिया और यह पता नहीं चले कि राजमिस्त्री इस काम में विफल
रहा, बेटे ने मंदिर के पीछे बह रही नदी में कूदकर अपनी जान दे दी। लेकिन यह बात
छिपी नहीं रही और पता चल गई जिसके बाद इस मंदिर को अपवित्र मान लिया गया एवं
कोणार्क के इस भव्य सूर्य मंदिर में कभी पूजा अर्चना नहीं हुई। चलिए यह तो बात
हुई.;कोणार्क मंदिर की। अब कोणार्क एक्सप्रेस ने लोनावाला को पार कर लिया है
धान यानी पेडी के छोटे-छोटे खेतों के साथ
साथ दौड़ते हुए और ट्रेन में लोनावाला की चिकी, चाय, टमाटो सूप, चाय, कोल्डड्रिक
बेचने वालों का तांता लग गया है। ऐसा लग रहा है जैसे शाम के समय किसी हाट बाजार
में पहुंच गया हूं।---कमल शर्मा
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