18 अगस्त
2014
चलते-चलते...भाग-तीन
छिंदवाडा से
आज पातालकोट एक्सप्रेस से इटारसी और फिर वहां से मध्य प्रदेश के दूसरे शहर खंडवा।
शाम छह बजे तक खंडवा पहुंच जाऊंगा। खंडवा को लोग किशोर कुमार के गांव के रुप में
जानते हैं। खंडवा शहर में 4 अगस्त 1929 को जन्म लेने वाले बॉलीवुड के नायक और गायक किशोर कुमार आज भी लोगों के दिलों में बसते हैं। यह
शहर स्वतंत्रता आंदोलन में
अहम योगदान देने वाले एवं हिंदी के महान पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी की कर्मस्थली रहा
है जिनकी अहम रचना पुष्प की अभिलाषा जन जन के मन-मस्तिषक में आज भी रची बसी है।
मैंने तीसरी
कक्षा में पढ़ी थी पुष्प की अभिलाषा और पर्वत की अभिलाषा। बचपन में जब स्कूल में
कोई मौका होता पुष्प की अभिलाषा ही गा देता। यह रचना है ही ऐसी की एक बार यदि
आपने पढ़ ली तो दिल में बस जाएगी। आज अधिकांश बच्चे गाना गाते रहते हैं, मैं बचपन
में पुष्प की अभिलाषा गुनगुना लेता था। इसके साथ कई राष्ट्रीय लेखकों की दूसरी
कविताएं भी जबान पर रहती थी। उस समय टीवी था ही नहीं और रेडियो भी मुश्किल से किसी
घर में होता था तो पता ही नहीं चलता था कि फिल्मी गाने क्या बला है।
पुष्प की अभिलाषा
चाह नहीं मैं सुरबाला के,
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में,
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव,
पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जाएँ वीर अनेक।
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में,
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव,
पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं, देवों के शिर पर,
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जाएँ वीर अनेक।
पर्वत की अभिलाषातू चाहे मुझको हरि, सोने का मढ़ा सुमेरु बनाना मत,
तू चाहे मेरी गोद खोद कर मणि-माणिक प्रकटाना मत,
तू मिट जाने तक भी मुझमें से ज्वालाएँ बरसाना मत,
लावण्य-लाड़िली वन-देवी का लीला क्षेत्र बनाना मत,
तू मिट जाने तक भी मुझमें से ज्वालाएँ बरसाना मत,
लावण्य-लाड़िली वन-देवी का लीला क्षेत्र बनाना मत,
जगती-तल का मल धोने को
भू हरी-हरी कर देने को
गंगा-जमुनाएँ बहा सकूँ
यह देना, देर लगाना मत।
माखनलाल चतुर्वेदी जी को सभी दादा के नाम से जानते हैं। इनकी प्रकाशित कृतियां हैं: हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिणी, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, माता, वेणु लो गूँजे धरा, बीजुरी काजल आँज रही आदि इनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियां हैं। कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पाँव, अमीर इरादे :गरीब इरादे आदि आपकी प्रसिद्ध गद्यात्मक कृतियां हैं।
खंडवा शहर का
प्राचीन नाम खांडववन (खांडव वन) था जो मुगलों और अंग्रेजों के आने से बोलचाल में
धीरे धीरे खंडवा हो गया। यह कहा जाता है कि राम के वनवास के समय यहां सीता को
प्यास लगी थी एवं राम ने यहां तीर मारकर एक कुआ बना दिया और उस कुए को रामेश्वर
कुए के नाम से जाना जाता है जो खंडवा के रामेश्वर नगर में नवचंडी माता मंदिर के
पास स्थित है। अतः खंडवा मान्यता अनुसार हजारों वर्ष पुराना है जिसका आधुनिक रूप
वर्तमान खंडवा है। 12वीं शताब्दी में यह नगर जैन समुदाय का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहां मिलने वाले
अवशेषों से यह सिद्ध होता है, इसके चारों ओर चार विशाल तालाब, नक़्क़ाशीदार स्तंभ और जैन मंदिरों के छज्जे थे।
मुंबई से भोपाल
जाने पर खंडवा शहर कई बार आया लेकिन खंडवा जाने का पहला अवसर मुझे माखनलाल
चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की ओर से ही मिला। दादा के
नाम पर स्थापित विश्वविद्यालय की ओर से खंडवापीठ में पत्रकारिता के
विद्यार्थियों का उनके शोधपत्र पर साक्षात्कार करना था। इसके बाद दूसरी बार पिछले
दिसंबर में ही खंडवा गया और अब तीसरी बार।
कृषि पैदावार
में बात करें तो खंडवा कपास, टिम्बर, तिलहन और लाल मिर्च का बड़ा व्यापार केंद्र
है। लाल मिर्च में एशिया की सबसे बड़ी मंडी आंध्र प्रदेश स्थित गुंटूर है लेकिन मध्य
प्रदेश के निमाड़़ इलाके के किसान जिस तरह हर साल लाल मिर्च की पैदावार बढ़ा रहे
हैं, उससे लगता है कि आने वाले समय में खंडवा शहर गुंटूर को पीछे छोड़ देगा।
खंडवा में मेरे एक अजीज पत्रकार मित्र संजय चौबे जी भी रहते हैं। भाई संजय से पहली मुलाकात हुई थी हरियाणा के शहर करनाल में। भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) से 1989 में पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद पहली नौकरी मिली थी विश्वमानव में। हिंदी का यह दैनिक अखबार कई शहरों से प्रकाशित होता था जिसमें मुझे करनाल भेजा गया। इस अखबार के समूह संपादक थे माधवकांत मिश्रा और स्थानीय संपादक थे बरेली के रहने वाले महेन्द्र मनुज। यद्यपि इस अखबार में मैं एक महीने ही रहा एवं जयपुर राजस्थान पत्रिका में आ गया। लेकिन एक महीने में यहां सभी का इतना स्नेह मिला एवं इतने दोस्त बने जो आज भी कायम है। इन दोस्तों में संजय चौबे जी भी शामिल थे, जो खंडवा के रहने वाले थे। हालांकि, बाद में 1992 में महाराष्ट्र के शहर औरंगाबाद से एक अखबार निकला देवगिरी समाचार। जहां मुझे करनाल के अपने सारे पत्रकार मित्रों को इकट्ठा करने का मौका मिला और हम यहां जुटे भी।
संजय चौबे जी
को एक सप्ताह पहले बता दिया था कि खंडवा आ रहा हूं। उन्होंने हमेशा की तरह
गर्मजोशी से कहा भैया आइए, आपका स्वागत है। अब दो दिन पहले फिर बात हुई तो पूछ
लिया कब आ रहे हैं। सोमवार शाम तक पहुंच जाऊंगा और मिलते है शाम में ही। मैंने
बहुत बरस पहले हिंदी की एक फिल्म देखी थी जो तंत्र मंत्र और होरर आधारित जैसी थी
जिसमें एक जगह आता है नागमणि खंडवा के जंगलों में मिलेगी। हालांकि, मैं नागमणि की
खोज में खंडवा नहीं जा रहा, मैं जा रहा हूं किसानों से मिलने जिन्होंने कपास की
बोआई की है, जो हम देशवासियों का तन ढकने के लिए कपास पैदा कर रहे हैं।